काशी खण्ड में वर्णित कथा के अनुसार पूर्वकाल में दक्षप्रजापति की कदरू एवं विनता नामक दो पुत्रियां थी जो मरीचि के पुत्र प्रजापति कश्यप से विवाहित थीं। एक बार वे दोनों परस्पर क्रीड़ा-कौतुक हो कथोपकथन करने लगीं जिसमें कदरू ने विनता से प्रश्न किया कि सूर्य देव के रथ में जो उच्चै:श्रवा नामक अश्व है वह चितकबरा है या श्वेतवर्ण है? साथ ही कदरू ने यह शर्त रखी कि जो भी हार जाएगी वह जीतने वाली की दासी बन जाएगी। इस प्रकार कदरू एवं विनता के पणबन्ध हो जाने पर कदरू ने चितकबरा तथा विनता ने श्वेतवर्ण कहा। तदुपरांत कदरू ने अपने सर्प पुत्रों को यह आदेश दिया कि वह उच्चै:श्रवा के पास जाए तथा उसकी पूंछ में लिपट कर उसके बालों को काला कर दें एवं अपने विषैले फुफकारों से उसके सर्वांग में रोमों को भी काला कर दें। सर्प पुत्रों ने माता के आदेश अनुसार किया। परिणामस्वरूप कदरू एवं विनता को आकाश में सूर्य देव के रथ में जाते हुए उच्चै:श्रवा चितकबरा रंग का दिखा। परिणामतः शर्त अनुसार कदरू विजयी हुए तथा विनता को उसकी दासी बनना पड़ा। तदुपरान्त विनता कदरू की सेवकाई करने लगी जिससे वह उदास रहने लगी।
प्रतिदिन अपनी माँ को उदास देख गरुड़ ने उसकी उदासी का कारण पूछा जिससे उसे यह ज्ञात हुआ कि विनता प्रण अनुसार कदरू की दासी होने के कारण ही उदास रहती है। यह ज्ञात होते ही गरुड़ ने अपने माता से कहा कि वह कदरू के पुत्रों से पूछे कि वह उससे क्या लेकर विनता को दासीत्व से मुक्त करेंगे। कथनानुसार विनता ने वैसे ही किया। इसपर कदरू के सर्प पुत्रों ने अमृत पाकर विनता को दासीत्व से मुक्त करने का वचन दिया। अतः गरुड़ ने अपनी माता को दासीत्व से मुक्त कराने हेतु अमृत लेने देवताओं के पास स्वर्ग में गमन किया। वहाँ अपनी बुद्धिमत्ता से गरुड़ ने अमृत कलश प्राप्त कर लिया। जब इस बात का ज्ञात भगवान विष्णु को हुआ तब गरुड़ एवं भगवान विष्णु के बीच भारी युद्ध हुआ। संग्राम में गरुड़ का बलवान भाव देख भगवान विष्णु उससे अत्यंत प्रसन्न हुए तथा उसे वरदान माँगे को कहा जिसके उत्तर में गरुड़ ने भगवान विष्णु से ही वरदान माँगने को कहा। अतः भगवान विष्णु ने उत्तर में उससे दो वरदान माँगे। पहला यह कि गरुड़ सर्पों को अमृत दिखलाकर अपनी माता को दासीत्व से मुक्त करेगा परंतु सर्प अमृत न पी पायें, तथा दूसरा वरदान यह माँगा कि वह अमृत देवताओं को लौटा देगा। भगवान विष्णु को यह दो वरदान देकर गरुड़ ने अमृत कलश के साथ सर्पों के पास अपनी माता को दासीत्व से छुड़ाने हेतु गमन किया। सर्पों के पास पहुँचकर उन्हें अमृत कलश सौंप के गरुड़ ने वचन अनुसार अपनी माता को दासीत्व से मुक्त करा लिया।
अनन्तर जब सर्पलोग अमृत का सेवन करने चले तब उन्हें अमृत सेवन से रोकने हेतु गरुड़ ने यह कहा कि बिना नहाये-धोये अशुद्ध लोगों के छू लेने से अमृत गायब हो जाएगा। उधर ज्यों ही सर्पगण नहाने को गये, त्यों ही भगवान विष्णु अमृतपात्र लेकर प्रस्थान कर गए। इधर जब सर्पगण नहाकर वापस आए तब अमृत गायब था। यह देख वे सब अमृत के स्पर्शमात्र की इच्छा से कुशों (जिसपर अमृत रखा था) को चाटने लगे, इससे सर्पों को अमृत तो प्राप्त नहीं हुआ परंतु उनकी जीभ कटकर दो टुकड़ों में हो गई।
जब विनता दासीत्व से मुक्त हो गई तब वह अपने दास्यरूप पाप के शान्त्यर्थं हेतु काशी में जाकर खखोल्क नामक आदित्य की प्रतिमा प्रतिष्ठित कर घोर तपस्या में लीन हो गई। विनता की तपस्या से प्रसन्न हो सूर्यदेव वरदान स्वरूप वहीं स्थित हो गए तथा खखोल्कादित्य नाम से विख्यात हुए। मान्यता अनुसार खखोल्कादित्य श्रद्धालुओं के विघ्नरूप अन्धकार को दूर करते हैं। इनके दर्शन-पूजन से श्रद्धालुओं को समस्त पापों से मुक्ति मिलती है।
श्रद्धालुओं द्वारा दर्शन-पूजन हेतु मंदिर प्रातः 5:00 से दोपहर 12:00 बजे एवं सायं 5:00 से रात्रि 10:00 बजे तक खुला रहता है। मंदिर में प्रातः 5:30 बजे मंगल आरती तथा सायं 9:30 बजे शयन आरती होती है।
वाराणसी में खखोल्कादित्य मंदिर डी -2/9, कामेश्वर महादेव,मच्छोदरी में स्थित है |मंदिर के दर्शन/यात्रा हेतु स्थानीय परिवहन सुगमता से उपलब्ध हैं।