काशी खण्ड में वर्णित कथा के अनुसार कश्यप महर्षि की दो अर्धांगिनी थी जिनका नाम कदरू व विनता था। कदरू ने सौ सर्पपुत्रों को जन्म दिया तथा विनता के तीन अर्थात उलूक, अरुण एवं गरुड़ नामक पुत्र हुए। उलूक को विनता के पुत्रों में ज्येष्ठ होने से पक्षियों का राज्य-पद मिला। परंतु पक्षीराज के रूप में बैठे उलूक को “निर्गुण” कहकर पक्षी गण ने गद्दी से उतार दिया। विनता द्वारा अपने ज्येष्ठ पुत्र उलूक की ऐसी दुर्दशा देखकर जब द्वितीय बार वह गर्भवती हुई तब पुत्रमुखदर्शन की लालसा से गर्भपाक में ही अंडा फोड़ दिया। उसमें अरुण उत्पन्न हुआ। गर्भ की परिपक्वता से पूर्व उत्पन्न किए जाने के कारण अरुण विकृत जन्मा। उसके जंघा के ऊपर का भाग पूर्णतः विकसित हो चुका था परंतु नीचे का भाग अविकसित था। अर्द्धनिष्पन्न गर्भ से जन्म लेते ही अरुण ने क्रोधित हो अपनी माता विनता को शाप दिया कि वह कदरू की दासी बनेगी। विनता द्वारा शाप-मुक्ति की प्रार्थना करने पर अरुण ने अपनी माता से यह कहा कि यदि वह तीसरे अंडे को समय पूर्ण होने पर ही फोड़ेगी तो उस गर्भ से जन्मा पुत्र ही उसे दास्यभाव से मुक्ति दिलाएगा। यह कहकर अरुण प्रस्थान कर गया तथा उसने काशी में गमन कर वहाँ भगवान आदित्य की प्रतिमा स्थापित कर घोर तपस्या करने लगा जिसके परिणाम स्वरूप सूर्यदेव ने उससे प्रसन्न होकर उसे ढेरों वरदान प्रदान किए तथा अपने रथ पर सदैव बैठे रहने का वरदान दिया और वहाँ स्थित हो अरूणादित्य के नाम से विख्यात हुए।
श्रद्धालुओं द्वारा दर्शन-पूजन हेतु मंदिर प्रातः 5:30 से 12:00 बजे तथा सायं 5:00 से 11:00 बजे तक खुलता है। मंदिर में प्रातः 5:30 बजे मंगल आरती तथा रात्रि 11:00 बजे शयन आरती होती है।
अरुणादित्य ए-2/80, त्रिलोचन घाट पर स्थित त्रिलोचन मंदिर में विराजमान हैं। मंदिर में दर्शन/यात्रा हेतु स्थानीय परिवहन के अतिरिक्त घाट पर स्थित होने के कारण नौका यात्रा भी सुलभ है।