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दिग्पतिया घाट
पूर्वी बंगाल के राजा, राजा दिग्पातिया के नाम पर इस घाट का नामकरण हुआ, जिन्होनें घाट एवं घाट स्थित महल का निर्माण 18वीं शताब्दी में कराया था। पूर्व में, यह घाट चौसट्टी घाट का ही भाग था। इसी घाट पर 18वीं शताब्दी का एक शिव मंदिर भी स्थापित है। महल बंगाली वास्तुकला का एक अद्भुत नमूना है। वर्तमान में, महल को काशी आश्रम के नाम से भी जाना जाता है। यह घाट यहां के स्थानीय लोगों के महय बहुत प्रसिद्ध है। इसकी स्थापना के बहुत वर्षों बाद, उत्तर प्रदेश सरकार ने 1965 में इसका पुनःनिर्माण कराया।
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चौसट्टी घाट
16वीं शताब्दी में राजा प्रतापादित्य ने इस घाट का निर्माण कराया था जिसे बाद में 18वीं शताब्दी के दौरान बंगाल के राजा दिग्पतिया द्वारा पुनःनिर्मित किया गया। घाट के तट पर, चौसट्टी देवी मंदिर भी स्थापित है, जिसके कारण इस घाट का नाम चौसट्टी घाट पड़ा। चौसट्टी देवी मंदिर से पहले, राणामहल में चौसठयोगिनी मंदिर स्थापित था, जो खजुराहो एवं जबलपुर के चौसठयोगिनी मंदिर के आकार में निर्मित था। यह मान्यता है कि यहां पर प्रार्थना करने से व्यक्ति की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। इसके अतिरिक्त, घाट पर पीपल के पेड़ के समीप काली देवी मंदिर एवं राजाप्रतापादित्य का स्मारक भी स्थापित है। विभिन्न क्षेत्रों एवं धर्मों के लोग/ पर्यटक प्रतिदिन यहां भ्रमण हेतु आते हैं।
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राणा महल घाट
17वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध, उदयपुर के शासक राणा प्रताप जगत सिंह ने घाट एवं घाट स्थित महल का निर्माण कराया था। राणा प्रताप जगत सिंह द्वारा निर्मित कराए जाने के कारण इस घाट का नाम राणा महल घाट पड़ा। घाट के उत्तरी एवं दक्षिणी हिस्से में 18वीं शताब्दी का शिव मंदिर भी स्थित है। इसकी नक्काशी एवं बनावट राजस्थानी वास्तुकला से प्रेरित है। ऐसा कहा जाता है कि सन~ 1765 में काशी का दौरा करते समय, राणा जगत सिंह इसी महल में ठहरे थे। वर्ष 1965 में राज्य सरकार द्वारा घाट का पुनःनिर्माण कराया गया।
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दरभंगा घाट
वर्ष 1812 में, नागपुर के राजा के मंत्री, श्रीधर मुंशी ने इस घाट एवं महल का निर्माण करवाया था। पूर्व में यह घाट वर्तमान मुंशीघाट का ही भाग था। वर्तमान में यह घाट दरभंगा घाट के नाम से जाना जाता है। यहां 19वीं शताब्दी का एक मंदिर भी स्थापित है जो भगवान शिव को समर्पित है। घाट स्थित महल पत्थरों से बना है।
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मुंशी घाट
वर्ष 1812 में, नागपुर के राजा के मंत्री, श्रीधर मुंशी ने इस घाट एवं महल का निर्माण करवाया था, जिनके नाम पर घाट का नाम मुंशी घाट रखा गया। पूर्व में, घाट राणा महल घाट का भाग था। 1920 में घाट का विभाजन हो गया था। घाट के ऊपरी हिस्से में, महल एवं राम जानकी मंदिर एवं नारायण मंदिर भी स्थित हैं। 19वी शताब्दी में घाट पर शिव मंदिर की स्थापना हुई थी। सांयकाल में भारी पर्यटक भ्रमण हेतु यहाँ आते रहते हैं तथा नाव द्वारा भ्रमण का आनंद लेते हैं।
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अहिल्याबाई घाट
वर्ष 1785 में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने घाट का निर्माण करवाया था एवं घाट पर महल स्थित महल था। इस घाट का प्राचीन नाम केवलगिरीघाट था, कालान्तर में, नाम परिवर्तित कर अहिल्याबाई घाट रख दिया गया। महल के अतिरिक्त, अहिल्याबाई बाड़ा (डी 18/16) एवं हनुमान मंदिर एवं दो शिव मंदिर भी महारानी द्वारा निर्मित कराए गए हैं। सांयकाल में घाट पर बंगाली महिलाओं द्वारा मधुर भजन गाए जाते हैं।
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शीतला घाट
18वीं शताब्दी में इंदौर की रानी, महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने इस घाट का निर्माण कराया था। 19वीं शताब्दी के पूर्व, यह घाट दशाश्वमेध घाट का भाग था। घाट के निर्माण के कुछ वर्षों के पश्चात, यहां पर शीतला देवी मंदिर की स्थापना हुई जिसके पश्चात घाट को शीतला घाट के नाम से जाना जाने लगा। शीतला मंदिर के अतिरिक्त, भगवान शिव के चार मंदिर एवं षटपहल मढ़िया विद्यमान है, जिनमे दो दत्तात्रेय, दो विठ्ठल एवं गंगा एवं यमुना की प्रतिमा भी स्थापित है।
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दशाश्वमेध घाट
वर्ष 1735 में बाजीराव पेशवा ने इस घाट का निर्माण करवाया था। 18वीं शती के पूर्व तक घाट का विस्तार अहिल्याबाई घाट से लेकर राजेंद्र प्रसाद घाट तक था। पारम्परानुसार ब्रह्मा जी द्वारा दस अश्वमेध यज्ञ कराने के बाद घाट का नामकरण दशाश्वमेध हुआ। डॉ.काशी प्रसाद जयसवाल के अनुसार दूसरी शताब्दी में कुषाण शासकों को परास्त करने के पश्चात भारशिव शासकों ने घाट पर दशाश्वमेध यज्ञ किया था जिसके पश्चात इस घाट का नाम दशाश्वमेध घाट हुआ। प्राचीन समय में इसका नाम रुद्रसर था। घाट के सामने गंगा नदी में रुद्रसर तीर्थ की स्थिति मानी जाती है। मान्यता है कि इस तीर्थ में डुबकी लगाने से सभी पापों से मुक्ति मिलती है एवं मोक्ष की प्राप्ति होती है। मत्स्यपुराण के अनुसार यह घाट काशी के प्रथम पांच तीर्थों में माना जाता है। गंगा, काली, राम पंचायतन एवं शिव मंदिर भी घाट पर स्थापित है। विभिन्न अनुष्ठान, मुण्डन आदि भी यहां पर आयोजित कराए जाते हैं। प्रतिदिन संध्या काल में घाट पर गंगा आरती होती है जिसके भव्य दृश्य से न केवल भारतीय वरन् विदेशी पर्यटकों को भी आकर्षित करता है। देव दीपावली के अवसर पर घाट को मिट्टी के दीपकों से सजाया जाता है, इस दिन घाट पर एक भव्य एवं आकर्षक दृश्य देखने को मिलता है। धार्मिक एवं पर्यटन की दृष्टि से यह अत्यंत महत्वपूर्ण है। यहाँ पर विभिन्न त्योहारों के अवसर पर पर्यटक आते हैं। यह घाट वाराणसी के प्रमुख पर्यटक गंतव्यों में से एक है।
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प्रयाग घाट
19वीं शताब्दी के आरम्भ में महारानी एच.के.देवी ने इस घाट का निर्माण कराया था। काशीखण्ड के अनुसार इस घाट पर प्रयाग तीर्थ की स्थिति मानी जाती है। घाट पर प्रयाग तीर्थ की स्थिति के कारण ही घाट को प्रयाग घाट के नाम से जाना जाता है। इस घाट के विषय में महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि, गंगा में बेनिया ताल से होते हुए मिसिर पोखरा एवं गोदौलिया, गोदावरी नदी का यहां पर संगम होता था। प्रयागेश्वर शिव, शूलटंकेश्वर शिव, ब्रह्मकेश्वर (चौमुख शिवलिंग), अभ्युद्य विनायक, प्रयागमाधव मंदिर स्थित हैं। मान्यता है कि दशाश्वमेध यज्ञ सम्पन्न होने के बाद, ब्रह्मा जी ने यहीं पर ब्रह्मकेश्वर शिवलिंग की स्थापना की थी। एक अन्य मान्यता के अनुसार शिव की प्रार्थना करके घाट पर स्नान करने से प्रयाग (इलाहाबाद) में स्नान के समकक्ष पुण्य प्राप्त होता है। प्रतिदिन यहां पर भक्तों की भीड़ पहले की अपेक्षा अधिक ही रहती है। माघ के महीने में, स्नान का विशेष महत्व है। घाट पर विभिन्न अनुष्ठान एवं धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन भी किया जाता है। 1977 में भागलपुर (बिहार) के ललित नारायण खण्डेलवाल ने इस घाट का पुनःनिर्माण कराया था।
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राजेंद्र प्रसाद घाट
वर्ष 1984 में राज्य सरकार ने घाट को पक्का कराया एवं घाट को भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के नाम पर नामकरण हुआ। पूर्व में इस घाट का नाम घोड़ा घाट था, क्योंकि इस घाट पर मौर्य काल से ही यहां पर घोड़ों का क्रय-विक्रय होता था। जिसकी पुष्टि जेम्स प्रिंसेप की फोटोग्राफी के माध्यम से हुई है। घाट पर दुर्गा, राम जानकी एवं शिव मंदिर भी स्थापित है। घाट के समीप ही डॉ. राजेंद्र प्रसाद की प्रतिमा स्थापित है। यह घाट सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है, विभिन्न प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रम इसी घाट पर आयोजित कराये जाते हैं। यहां पर बड़ी मात्रा में पर्यटक आते हैं। घाट पर नौका विहार के लिए नावें भी उपलब्ध हैं। पर्यटन विभाग उत्तर प्रदेष राजेंद्र प्रसाद घाट पर गंगा महोत्सव का आयोजन करता है।
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मान महल घाट
16वीं शताब्दी में राजस्थान के राजा मान सिंह ने घाट, महल एवं घाट स्थित मंदिर का निर्माण कराया था। शासक के नाम पर ही इस घाट का नामकरण मान मंदिर घाट हुआ। वर्ष 1831 में इस घाट का वर्णन जेम्स प्रिंसेप ने किया था। गीवार्णपदमंजरी के अनुसार घाट का प्राचीन नाम सोमेश्वर घाट था। अपनी धार्मिक एवं सांस्कृतिक महत्ता की अपेक्षा यह घाट अपने कलात्मक महल एवं नक्षत्र वेधशाला के लिए अत्यधिक प्रसिद्ध है। घाट पर स्थित महल उत्तर मध्य काल की राजस्थानी राजपूत दुर्ग शैली में निर्मित मथुरा के गोवर्धन मंदिर का उत्कृष्ट उदाहरण है। 17वीं शताब्दी में मान सिंह के वंशज, राजा सवाई जय सिंह ने नक्षत्र वेधशाला का निर्माण कराया था जिसका मानचित्र सवाई जय सिंह के प्रख्यात जगन्नाथ ज्योतिषी समर्थ ने तैयार किया था। वेधशाला में सम्राट यंत्र, लघु सम्राट यंत्र, दक्षिणोत्तर भिति यंत्र, नाड़ी वलय यंत्र, दिशांग एवं चक्र यंत्र पर्यटकों हेतु दर्शनीय हैं। वर्तमान में महल भारतीय पुरातत्व विभाग के संरक्षण में है। वर्तमान में राजा मान सिंह द्वारा निर्मित अदाल्भेश्वर शिव मंदिर, 19वीं शताब्दी में निर्मित सोमेश्वर मंदिर, रामेश्वर शिव, स्थूलदंत विनायक मंदिर भी घाट पर स्थित हैं। वर्तमान में घाट स्वच्छ है एवं स्थानीय लोगों द्वारा स्नान एवं अन्य उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किया जाता है। देशी-विदेशी पर्यटक इसकी अद्भुत वास्तुकला की ओर आकर्षित होते हैं। वर्ष 1998 में सिंचाई विभाग ने उत्तर प्रदेश सरकार के साथ मिलकर घाट का पुनर्निमाण कराया था।
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त्रिपुरा भैरवी घाट
प्राचीन त्रिपुरा भैरवी (दुर्गा) मंदिर घाट मार्ग पर ही स्थित है। 18वीं शताब्दी में मंदिर का पुनर्निमाण कराया गया, जिसके बाद घाट का नाम त्रिपुरा भैरवी घाट पड़ा। गीवार्णपदमंजरी के अनुसार घाट का प्राचीन नाम वृद्धादित्य घाट था। घाट पर त्रिपुरेश्वर शिव, रुद्रेश्वर शिव मंदिर भी स्थित हैं, घाट की ऊपरी भाग में पीपल पेड़ के नीचे शक्ति, विष्णु, गणेश एवं सूर्य की प्रतिमाएं एवं मध्य में शिवलिंग पंचायतन शैली में स्थापित है। 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में दयानंद गिरी ने घाट का पुनर्निमाण कराया था एवं इसे पक्का कराया था, साथ ही एक मठ (म.सं. डी 51/100) को भी स्थापित किया था। विभिन्न प्रकार के अनुष्ठान जैसे मुण्डन, गंगा पूजा आदि भी यहां पर आयोजित होते हैं।
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मीर घाट
वर्ष 1735 में काशी के तत्कालीन फौजदार मीर रुस्तम अली द्वारा घाट का निर्माण कराये जाने के कारण घाट का नामकरण मीर घाट हुआ। गीवार्णपदमंजरी के अनुसार घाट का प्राचीन नाम जरासंध था। घाट के समक्ष गंगा नदी में जरासंध तीर्थ की स्थिति मानी जाती है एवं घाट के ऊपरी भाग में जरासंधेश्वर मंदिर भी स्थापित है। इसी कारण इस घाट को पूर्वकाल में जरासंध घाट कहा जाता था। कार्तिक माह के कृष्ण चतुर्दशी के अवसर पर जरासंधेश्वर शिव की पूजा करने का अत्यधिक महत्व है। विशालाक्षी देवी का मंदिर भी घाट पर ही स्थित है जो धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है एवं दक्षिण भारत वास्तुकला का एक उत्कृष्ट नमूना है। विशालाक्षी देवी को काशी की नौ गौरी में स्थान प्राप्त है। ऐसी मान्यता है कि विशालाक्षी देवी के दर्शन से सभी मनोकमनाएं पूर्ण हो जाती हैं तथा सभी दु:ख समाप्त हो जाते हैं। विशालक्षी मंदिर के साथ ही यहां पर श्वेत माधव (विष्णु), आशा विनायक (गणेश) एवं यज्ञवाराह का भी मंदिर भी इसी घाट पर स्थापित है। इन मंदिरों के अतिरिक्त, दो मठ भी स्थापित है, जिनमें से एक मठ को भजनाश्रम मठ के नाम से जाना जाता है जहाँ विशेषकर बंगाली समुदाय की महिलाएं रहती हैं। मठ की संपूर्ण देखरेख स्वर्गीय गणपत राय खेमका ट्रस्ट , कोलकत्ता द्वारा किया जाता है। दूसरा मठ नानक पंथी सिक्ख साधुओं का है। प्रतिदिन इस मठ द्वारा गरीबों एवं साधुओं को नि:शुल्क औषधि का वितरण किया जाता है।
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ललिता घाट
घाट मार्ग पर ललिता देवी मंदिर स्थित है। ललिता देवी को काशी की नौ गौरी में स्थान प्राप्त है। इस घाट पर गंगा में ललिता तीर्थ की स्थिति है। जिसके कारण इसे ललिता घाट के नाम से जाना जाता है। 19वीं शताब्दी के मध्य में नेपाल नरेश ने इस घाट का निर्माण कराया था एवं इसे पक्का कराया। ललित देवी मंदिर के अतिरिक्त समराजेश्वर शिव, राजराजेश्वरी एवं गंगादित्य (सूर्य) मंदिर भी स्थापित हैं। ये सभी मंदिर 18वीं शताब्दी के हैं। गंगादित्य को काशी के द्वादश आदित्य में स्थान प्राप्त है। काशी में, साम्राजेश्वर शिव मंदिर को नेपाल का पशुपतिनाथ मंदिर का प्रतीक है। इसे नेपाली मंदिर भी कहा जाता है। यह मंदिर काष्ठ से निर्मित है एवं पगोडा शैली को दर्शाता है। इस मंदिर के समीप ही नेपाल नेरश ने नेपाली कोठी का भी निर्माण कराया था, जो काष्ठ निर्मित संरचना है। 18वीं शताब्दी के अंत तक सिद्धगिरी एवं उमरावगिरी मठ का भी निर्माण हो गया था एवं वर्ष 1922 में काशी में रतनगढ़ (राजस्थान) के जवाहर मल खेमका ने मोक्ष भवन का निर्माण कराया। घाट के एक हिस्से में लोग स्नान करते हैं।
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जलाशयी घाट
यह गंगा पर स्थित घाटों में एक है, जहां भगवान शिव की उपस्थिति तट पर नहीं वरन् गंगा नदी में मानी जाती है। ऐसी मान्यता है कि घाट पर गंगा के किनारे शिवलिंग के रूप में भगवान शिव शयन करते हैं। गंगा में भगवान शिव के विराजमान होने के कारण यह घाट जलाशयी घाट अथवा जलासेन घाट के नाम से जाना जाता है। गीर्वाणपदमंजरी के अनुसार इस घाट का प्राचीन नाम मोक्षद्वारेश्वर घाट था। ऐसा माना जाता है कि शिवलिंग पर मृत शरीर का रुद्रान्श अर्पित करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। 20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में राजा बलदेवदास बिड़ला ने घाट का पुनर्निर्माण कराया एवं घाट को पक्का कराकर धर्मशाला भी स्थापित कराई।
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खिड़किया घाट
प्राचीन वेदेश्वर घाट को अब खिड़की घाट के नाम से जाना जाने लगा। खिड़की घाट का उल्लेख डा0 मोतीचन्द्र ने किया है। घाट पर स्थित पीपल वृक्ष में शिव मंदिर भी स्थित है। घाट के ऊपरी हिस्से में, बसंता कॉलेज एवं गांधी विद्या संस्थान, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से सम्बद्ध स्थित हैं।
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मणिकर्णिका घाट
वर्ष 1730 में सदाशिव नाइक ने महाराष्ट्र के पेशवा बाजीराव की मदद से घाट का पक्का निर्माण कराया। ऐसी मान्यता है कि मणिकर्णिका कुण्ड, जो इस घाट पर मौजूद है, के नाम पर इस घाट का नामकरण हुआ था। काशीखण्ड के अनुसार इस कुण्ड का प्राचीन नाम चक्रपुष्करणी कुण्ड था, जो भगवान विष्णु के चक्र से सृजित हुआ था, जब भगवान विष्णु भगवान शिव के लिए तपस्या कर रहे थें। दूसरी मान्यता यह भी है कि भगवान शिव एवं मां पर्वती चक्रपुष्करणी की समीक्षा कर रहे थें जब मां पार्वती के कानों की मणि का कीमती पत्थर इस कुण्ड में गिर गया, जिसके कारण इसका यह नाम पड़ गया। मत्स्यपुराण के अनुसार काशी के प्रमुख घाटों में से यह एक है। जो व्यक्ति यहां पर मृत्यु को प्राप्त होता है उसके कान में स्वयं भगवान शिव तारक मंत्र का उच्चारण करते हैं। ऐसा कहा जाता है कि यहां जन्म लेने वाला एवं मृत्यु को प्राप्त करने वाले दोनो ही सौभाग्यशाली होते हैं। घाट के समक्ष मणिकर्णिका, इंद्रेश्वर,अविमुक्तेश्वर,चक्रपुष्करणी, उमा, तारक, पितामह, स्कन्ध एवं विष्णु तीर्थ भी स्थित हैं। प्रसिद्ध पंचक्रोशी यात्रा भी यहीं पर स्नान करने के पश्चात यहीं से शुरु होती है एवं स्नान-दान के बाद यहीं पर समाप्त होती है। घाट पर अधिकांश मंदिर भगवान शिव को समर्पित हैं, जिसमे तारकेश्वर शिव, रानी भवानी शिव, मणिकर्णिका शिव, रत्नेश्वर शिव, अमेठी शिव (शिव एवं महिषमर्दिनी), मनोकामेश्वर शिव, रुद्रेश्वर शिव, सिद्धिविनायक शिव (गणेश), मणिकर्णिका विनायक (गणेश) मंदिर सम्मिलित हैं। ये मंदिर अलग-अलग तिथियों बंगाल, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश एवं बिहार के विभिन्न शासकों द्वारा निर्मित हुए हैं।
यह घाट महाश्मशान है। देश के अलग-अलग क्षेत्रों से लोग यहां अंतिम संस्कार करने आते हैं। यहां श्मशान की आग कभी भी नहीं बुझती है। ऐसा कहा जाता है कि 18वीं शताब्दी के पूर्वान्ह में कश्मीरीलाल द्वारा श्मशान भूमि की स्थापना करायी गयी एवं प्रथम शवदाह भी इन्होंने ही कराया था। इस घाट को लेकर एक कथा भी प्रचलित है कि दाह संस्कार को लेकर हरीशचंद्र घाट पर चंडाल एवं कश्मीरीलाल के बीच कश्मीरीलाल की माता के शव के दाह संस्कार को लेकर कुछ नोकझोक हो गई थी। इस झड़प के बाद कश्मीरीलाल ने मणिकर्णिका घाट की जमीन खरीद ली एवं दाह संस्कार की प्रक्रिया को पूरा किया एवं बाद में इन्होंने घाट को सुदृढ़ कराया।
प्रारंभ में यह घाट सिर्फ विभिन्न अनुष्ठानों के लिए जाना जाता था लेकिन बाद में यहां पर शवदाह की प्रक्रिया भी शुरु हो गई। वर्तमान में यह घाट तीर्थ एवं शव दाह दोनो के लिए प्रसिद्ध है। घाट धार्मिक एवं सांस्कृतिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है। प्रतिदिन यहां पर लोग स्नान हेतु आते हैं। कार्तिक माह, सूर्य-चंद्र ग्रहण, एकादशी, संक्रांति, गंगा दशहरा, भैया दूज आदि के उपलक्ष्य में लोग यहां आते हैं एवं इस घाट पर पूजा-अर्चना एवं विभिन्न अनुष्ठान की प्रक्रिया पूरी करते हैं। शव दाह के अतिरिक्त यहां पर हिंदू धर्म के विभिन्न अनुष्ठान भी किए जाते हैं। कार्तिक माह में, घाट पर रामलीला भी आयोजित होती है।
ऐसा भी कहा जाता है कि 1988 में राज्य सरकार की मदद से, घाट का सुदृढ़ीकरण कराया गया है। घाट का उत्तरी हिस्सा साफ एवं पक्का है, जहां आम तौर पर लोग स्नान करते हैं एवं घाट का दक्षिणी हिस्सा शव दाह के लिए प्रयोग होता है। घाट पर विष्णु चरण पादुका चबूतरा स्थापित है जिस पर भगवान विष्णु के पदचिन्ह अंकित हैं।
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सिंधिया घाट
वर्ष 1835 में ग्वालियर की महारानी बैजाबाई सिंधिया ने घाट को पक्का कराया, जिसके बाद से इस घाट का नाम सिंधिया घाट पड़ा। गीर्वाणपदमंजरी के अनुसार घाट का प्राचीन नाम वीरेश्वर था। वर्ष 1302 में वीरेश्वर नाम के व्यक्ति ने आत्मविरेश्वर (शिव) मंदिर का निर्माण करवाया जिसके कारण घाट का नाम वीरेश्वर घाट पड़ा। ऐसा माना जाता है कि हरिश्चंद्र एवं पर्वत तीर्थ घाट के सामने स्थित हैं। वीरेश्वर (शिव) मंदिर के साथ, पर्वतेश्वर शिव एवं दत्तात्रेश्वर (शिव एवं दत्तात्रेश्वर) मंदिर भी यहीं पर स्थापित हैं।
वर्ष 1949 में घाट को ग्वालियर राजपरिवार द्वारा सुदृढ़ कराया गया। -
संकठा घाट
वर्ष 1825 में घाट का पुनर्निर्माण कराया गया एवं विश्वंभर दयाल की पत्नी द्वारा इसे पक्का कराया गया। घाट के क्षेत्र में, संकठा देवी का मंदिर भी स्थापित है, जिनके नाम पर ही इस घाट का नामकरण हुआ। पूर्व में इस घाट का विस्तार गंगा महल (द्वितीय) तक ही सीमित थी। वर्ष 1864 में गंगा महल (द्वितीय) के निर्माण करवाने के बाद, यह दो भागों में बंट गया। काशीखण्ड के अनुसार प्राचीन समय में संकठा घाट, श्मशान घाट हुआ करता था। यमेश्वर शिव मंदिर एवं हरिश्चंद्रेश्वर मंदिर की स्थिति एवं यहां पर यम द्वितीय का स्नान इस तथ्य की पुष्टि करता है। घाट के समक्ष चंद्र एवं वीर के तीर्थ की उपस्थिति मानी गई है। यह माना जाता है कि शुक्रवार को इस घाट पर स्नान करने से एवं संकठा देवी की पूर्जा अर्चना एवं यम द्वितीय की नवरात्रि के छठे दिन पूजा का विशेष महत्व है। पद्मपुराण के अनुसार, देवी को अन्य बहुत से नाम से जाना जाता है जैसे विजया, कामदा, दु:ख हारणी, कात्यायनी, सर्वरोगहरण। इसके अतिरिक्त घाट पर वशिष्ठेश्वर शिव, बैकुण्ठ माधव, चिंतामणि विनायक मंदिर भी यहां पर स्थित हैं। घाट के निकट का क्षेत्र, देवलोक कहा जाता है। इसकी धार्मिक महत्ता के कारण पर्यटकों एवं तीर्थयात्रियों के आकर्षण का केंद्र है। बदौड़ा के राजा का महल भी घाट पर स्थित है, जो महारानी गुहनाबाई द्वारा निर्मित है। आसपास के क्षेत्र में गुजराती ब्राहम्ण भी रहते हैं। वर्ष 1965 में राज्य सरकार द्वारा घाट का पुनर्निर्माण कराया गया।
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गंगामहल घाट
वर्ष 1864 में ग्वालियर महाराज जियाजी राव सिंधिया ने घाट के तट को क्रय कर उसका पक्का निर्माण कराया एवं एक विशाल महल का भी निर्मित कराया। महल की स्थिति के कारण इस घाट का नाम गंगा महल घाट पड़ा। यह महल अपनी वास्तुकला के लिए अत्यधिक प्रसिद्ध है। महल में प्रवेश हेतु गंगा तट पर दो प्रवेश द्वार स्थित हैं। महल के भीतर नागर शैली में निर्मित राधा-क़ृष्ण मंदिर भी स्थापित है। मंदिर में कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, गणेश चतुर्थी, शिवरात्रि एवं अन्य प्रमुख त्योहारों पर विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। यहां कृष्ण लीला के आयोजन के अवसर पर ब्राह्मण भोग व दान दक्षिणा दी जाती है। इसके अतिरिक्त यहां पर 18वीं शताब्दी का लक्ष्मीनारायण मंदिर भी स्थापित है। स्थानीय लोग ही यहां पर स्नान हेतु आते हैं। राज्य सरकार की मदद से, सिंचाई विभाग ने घाट का सुदृढ़ीकरण कराया था। गुजरात एवं महाराष्ट्र के लोग घाट के समीप निवास करते हैं।
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भोंसले घाट
वर्ष 1795 में भोंसला महाराज ने घाट एवं घाट स्थित महल का निर्माण कराया था, जिसके बाद घाट का नाम भोंसले घाट हो गया। गीर्वाणपदमंजरी के अनुसार इसका प्राचीन नाम नागेश्वर घाट था। घाट के समीप ही नागेश्वर मंदिर भी अवस्थित है, जिसे द्वादश ज्योतिर्लिंग में स्थान प्राप्त है। घाट पर स्थित महल कला, शिल्प एवं वास्तुकला की दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण है। महल का प्रवेश द्वार गंगा के तट पर स्थित है। महल के केंद्र में लक्ष्मीनारायण एवं रघुराजेश्वर (शिव) मंदिर भी स्थित है।
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नया घाट
20वीं शाताब्दी की शुरुआत में, चैनपुर, भभुआ (बिहार) के नरसिंह जापाल ने घाट के उत्तरी भाग का निर्माण कराया एवं साथ ही घाट के तट पर एक भवन का भी निर्माण कराया , जिसके बाद इसे नया घाट नाम दिया गया। घाट का पुराना नाम फूटेश्वर घाट था, जो जेम्स प्रिंसेप द्वारा उल्लिखित किया गया है। फूटेश्वर शिव मंदिर के उपस्थिति के कारण इसे फूटेश्वर घाट कहा जाता था। घाट पर इसके अतिरिक्त हनुमान का मंदिर भी स्थापित है। सन् 1988 में राज्य सरकार की मदद से सिंचाई विभाग ने शेष घाट का पक्का निर्माण कराया।
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गणेश घाट
वर्ष 1807 में पूना के अमृतराव पेशवा ने घाट का पक्का निर्माण कराया एवं अमृत विनायक मंदिर (नागर शैली) का निर्माण कराया। घाट पर अमृत विनायक (गणेश) मंदिर की उपस्थिति के कारण इस घाट को गणेश घाट कहा जाता है। प्राचीन समय में यह अग्नीश्वर घाट का ही हिस्सा था। भादपद्र माह की शुक्ल चतुर्थी पर स्नान करने का यहां विशेष महत्व है। घाट पर स्नान करने के बाद श्रद्धालु अमृत विनायक का दर्शन-पूजन करते हैं। विभिन्न अवसरों पर धार्मिक कार्यक्रम, प्रवचन-कीर्तन का आयोजन किया जाता है एवं गरीब एवं असहायों को भोजन एवं वस्त्र दान किया जाता है। लोग यहां पर प्रतिदिन एवं विशेष अवसरो पर स्नान करने आते हैं।
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मेहता घाट
वर्ष 1960 में कलकत्ता के निवासी वल्लभराम शालिग्राम मेहता ने घाट की भूमि क्रय कर घाट का निर्माण कराया। पूर्व में यह घाट रामघाट का ही भाग था। घाट के ऊपरी हिस्से में एक अस्पताल एवं प्रसिद्ध सांगवेद संस्कृत विद्यालय स्थित है। घाट का निर्माण ईंटों एवं सीमेंट से किया गया है लेकिन क्योंकि इसकी धार्मिक महत्ता कम है, तो यहां स्नान करने आने वाले लोग की संख्या कम रहती है। यहाँ मराठी समुदाय के व्यक्ति निवास करते हैं।
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राम घाट
18वीं शताब्दी में जयपुर के राजा सवाईमान सिंह ने घाट एवं घाट स्थित राम पंचायतन मंदिर का निर्माण कराया था। राममंदिर की स्थिति होने के कारण इस घाट का नाम राम घाट पड़ा।पूर्व में इस घाट का विस्तार मेहता घाट तक था। 18वीं शताब्दी में इसका पुनर्निर्माण कराया गया। यह पुनर्निर्माण सवाई मान सिंह द्वारा कराया गया था, जो वर्तमान में सुरक्षित है। गीर्वाणपदमंजरी के अनुसार राम, ताम्रवाराह , इक्ष्वाकू तीर्थ घाट पर गंगा नदी में विराजमान हैं। चैत्र मास की रामनवमी तिथि के अवसर पर नदी में स्नान करने एवं राम मंदिर में पूजा करने का विशेष महत्ता है। अतिरिक्तकाल विनायक मंदिर एवं लोक देवता मंदिर के साथ महाराष्ट्र के खण्डोबा भी यहां स्थापित हैं। माघशीर्ष माह के पंचमी एवं अष्टमी के अवसर पर महाराष्ट्र के लोग खण्डोबा का मंदिर में पूजा-अर्चना करते हैं। साथ ही, शास्त्रीय नृत्य एवं अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित किये जाते हैं। वर्तमान में घाट पक्का एवं स्वच्छ है एवं स्थानीय लोगों द्वारा इसका उपयोग स्नान हेतु किया जाता है। विशेष अवसरों पर लोग यहां पर स्नान करने एवं पूजा-अर्चना करने भी आते हैं। इस क्षेत्र में मराठा समुदाय के लोगों का बाहुल्य है।
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ग्वालियर घाट
19वीं शताब्दी के मध्य में ग्वालियार के राजा जियाजी राव शिंदे ने घाट एवं घाट स्थित महल का निर्माण कराया। घाट ग्वालियर के राजा द्वारा निर्मित करने के कारण नाम ग्वालियर घाट रखा गया था। पूर्व में यह घाट जटार घाट का ही भाग था। भगवान शिव के तीन छोटे-छोटे मंदिर भी यहां पर स्थापित हैं। घाट के समक्ष गंगा नदी में पिप्पालाद तीर्थ की स्थिति मानी गई है।
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पंचगंगा घाट
घाट का पक्का निर्माण 1580 ई0 में रघुनाथ टण्डन द्वारा कराया गया था। ऐसा माना जाता है कि गंगा, यमुना, सरस्वती, किरणी एवं धूतपापा नदियों का अदृश्य रूप से संगम होता है। अतः इन पांच नदियों के संगम के कारण ही इस घाट का नाम पंचगंगा घाट पड़ा। प्राचीन समय में घाट का नाम बिंदुमाधव घाट था एवं यहां स्थापित मंदिर का नाम बिंदुमाधव मंदिर था। मान्यताओं के अनुसार, 17वीं शताब्दी के प्रारंभ में बिंदुमाधव मंदिर आमेर के राजा मान सिंह द्वारा निर्मित कराया गया था, जिसे औरंगज़ेब द्वारा नष्ट कर दिया गया एवं आलमगीर मस्जिद का रूप दे दिया गया । तत्पश्चात घाट का नाम पंचगंगा घाट हो गया। वर्तमान बिन्दु माधव मंदिर का निर्माण 18वीं शती के मध्य पंत प्रतिनिधि भावन राव, महाराजा औध महाराष्ट्र(सातारा) के करवाया था। काशी के सप्तपुरियो के अंतर्गत घाट को कांचीपुर क्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है एवं पुरी (ओडिशा) के जगन्नाथ मंदिर से तुलना की गयी है। काशीखण्ड के अनुसार कार्तिक मास में यहां पर स्नान करने की विशेष महत्ता है। ऐसा कहा जाता है कि माघ के पूरे माह में प्रयाग में स्नान करने से जिस पुण्य एवं फल की प्राप्ति होती है, वह यहां पर एक दिन स्नान मात्र से ही प्राप्त हो जाता है। कि घाट के समक्ष पंचनद तीर्थ की उपस्थिति मानी गई है। घाट पर विभिन्न मठ एवं मंदिर भी स्थापित हैं। रामानंद (श्री मठ संस्थान), श्री संस्थान गोकर्ण पर्तगाली जिवोत्तम, सत्यभामा एवं तेलंगस्वामी मठ घाट पर स्थित है। इसके अतिरिक्त बिंदु माधव मंदिर, बिंदु विनायक मंदिर, राम मंदिर (कंगन वाली हवेली) राम मंदिर (गोकर्ण मठ), रामानंद मंदिर, धूतपापेश्वर (शिव) रेवतेश्वर (शिव) मंदिर प्रसिद्ध हैं। साथ ही आलमगीर मस्जिद को भी घाट के प्रमुख धार्मिक स्थलों में गिना जाता है। असि से आदिकेशव घाट के मध्य गंगा घाट पर आलमगीर मस्जिद (एकमात्र मस्जिद) स्थापित है। यह मस्जिद वास्तुकला एवं स्थापत्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। 14-15 वीं शती में वैष्णव संत रामानंद, रामानंद मठ में निवास करते थें एवं अपने पूरे जीवन उन्होंने राम भक्ति का लोगों में प्रचार-प्रसार किया एवं कबीर-रेदास एवं अपने शिष्यों का मार्गदर्शन किया। 19वीं शताब्दी में महंत संत तेलंगस्वामी, घाट स्थित तेलंगस्वामी मठ में निवास करते थें। यहां पर उन्होंने एक विशाल शिवलिंग की स्थापना की थी। जिसके विषय में ऐसी मान्यता है कि तेलंगस्वामी ने इसे गंगा नदी से निकालकर स्थापित किया था। रामानंद मठ के समीप ही अहिल्याबाई होल्कर द्वारा दीप हजारा स्तंभ की भी स्थापना करवायी गई है जो कार्तिक पूर्णिमा के दिन दियों (दीप) के माध्यम से प्रज्ज्वलित किया जाता है। वर्तमान में काशी में लोग अपनी श्रद्धानुसार दीप प्रज्जवलन करते हैं। पंचगंगा घाट काशी के प्रमुख घाटों में से एक है। कार्तिक शुक्ल एकादशी से पूर्णिमा तिथि तक घाट पर पंचगंगा स्नान मेला का भी आयोजन किया जाता है।
इस अवसर पर स्नान करने के पश्चात भक्त मृदा निर्मित भीष्म की प्रतिमा की पूजा अर्चना करते हैं, जिनकी प्रतिमा (मूर्ति) मिट्टी (क्ले) से निर्मित है। कार्तिक माह में गंगा के तट पर लंबे बांस को स्थापित कर दीपकों से सजाया जाता है, जो वाराणसी की सुंदरता को बढ़ा देते हैं। इसके अतिरिक्त, इस घाट पर सांस्कृतिक एवं धार्मिक कार्यक्रमों का भी आयोजन किया जाता है। -
दुर्गा घाट
इस घाट का उल्लेख गीवार्णपदमंजरी (17वीं शताब्दी) है। 1740 में पेशवाओं के सहयोग से नारायण दीक्षित ने इस घाट का पुनर्निर्माण कराया था। इस घाट पर ब्रह्मचारिणी दुर्गा मंदिर (म.सं. के 22/17) की उपस्थिति के कारण इस घाट का नाम दुर्गा घाट पड़ा। चैत्र एवं अश्विन माह के नवरात्र के दूसरे दिन, ब्रह्मचारिणी दुर्गा की पूजा अर्चना करने का विशेष महत्व है। इसके अतिरिक्त खर्वनरसिंह मंदिर भी घाट पर ही स्थित है। घाट के सम्मुख खर्वनरसिंह तीर्थ की उपस्थिति मानी गई है। शास्त्रीय विधि के अनुसार गंगा के तट पर सीढ़ियों का निर्माण कराया गया है। गंगा के तट पर हर नौ सीढ़ी के बाद चौकी की स्थापना की गई है। ये नौ सीढ़ियां नौ देवियों का प्रतीक स्वरूप निर्मित हैं। दैनिक स्तर पर घाट पर धार्मिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। धार्मिक, सांस्कृतिक व पर्यटकोचित स्थल होने के कारण घाट पर श्रद्धालुओं व देशी-विदेशी का आवागमन भारी संख्या में होता है। घाट के इस क्षेत्र में वैदिक शिक्षा प्रदान करने वाले मराठी ब्राह्मणों का बाहुल्य है। वर्ष 1958 में राज्य सरकार द्वारा घाट का पुनर्निर्माण कराया गया था।
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ब्रह्मा घाट
सन् 1740 में नारायण दीक्षित ने दुर्गा घाट के साथ-साथ इस घाट का भी निर्माण कराया था। प्रथम बार इसका उल्लेख गीवार्णपदमंजरी में हुआ है। ऐसा कहा जाता है कि भगवान शिव के आदेश पर जब ब्रह्मा काशी भ्रमण करने आए, तब ब्रह्माजी ने घाट पर ही निवास किया, जिसके कारण इस घाट का नाम ब्रह्मा घाट पड़ा। मत्स्यपुराण में ब्रह्मा एवं काशी का उल्लेख एक साथ देखा जा सकता है। इसी घाट पर ब्रह्मा मंदिर (13वीं शताब्दी की भगवान ब्रह्मा की प्रतिमा की स्थापना) एवं ब्रह्मेश्वर शिव मंदिर की भी स्थापना करी गई है। काशी मठ संस्थान के परकोटे में बिंदु माधव (दत्तात्रेय) एवं लक्ष्मीनृसिंह मंदिर भी स्थापित हैं। घाट के सम्मुख गंगा नदी में भैरव तीर्थ की भी स्थिति मानी गई है। गंगा तट से ब्रह्मोश्वर शिव मंदिर एवं ब्रह्मा मंदिर तक जाने हेतु शास्त्रीय विधान के अनुसार विभिन्न सीढ़ियों का निर्माण कराया गया है। ब्रह्मेश्वर शिव जाते समय, हर पांच सीढ़ी पर चौकी का निर्माण कराया गया है, जो पंचायतन शिव का प्रतीक है, जबकि ब्रह्मा मंदिर जाते समय हर चार सीढ़ी पर चौकी का निर्माण कराया गया है जो चतुर्मुखी ब्रह्मा का प्रतिनिधित्व करते हैं। मान्यताओं के अनुसार, आदि शंकराचार्य काशी भ्रमण के समय श्री काशी मठ संस्थान में निवास करते थें। कांचीकोटि के शंकराचार्य द्वारा प्रति वर्ष इसी घाट पर चातुर्मास अनुष्ठान का भी आयोजन किया जाता है। राज्य सरकार द्वारा इस घाट का निर्माण सन् 1958 में कराया गया था एवं वर्तमान समय में इसे स्थानीय लोगों द्वारा स्नान करने हेतु प्रयोग किया जाता है।
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बूंदी परकोटा घाट
16वीं शताब्दी के अंत में बूंदी (राजस्थान) के शासक महाराज राव सुरजन ने घाट एवं घाट स्थित महल का निर्माण कराया। गीवार्णपदमंजरी के अनुसार घाट का प्राचीन नाम आदिविश्वेश्वर था। महल के मध्य में घाट पर विश्वेश्वर या आदिविश्वेश्वर शिव मंदिर स्थित होने के कारण इस घाट का नाम आदिविश्वेश्वर पड़ा। पूर्व में घाट का विस्तार शीतलाघाट (द्वितीय) तक था। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में बूंदी के शासक, राजा राव प्रीतम सिंह ने शीतला घाट (द्वितीय) का निर्माण कराया, जिसके बाद घाट प्रीतम सिंह एवं शीतला घाट में विभाजित कर दिया गया। सन् 1958 में राज्य सरकार ने घाट का जर्णोद्धार कराया एवं प्रीतम सिंह घाट का पुनः नामकरण बूंदीपरकोटा घाट किया गया। आदिविश्वेश्वर के अतिरिक्त अन्नपूर्णा, शेषमाधव (विष्णु) एवं कर्णादित्य मंदिर भी यहां पर स्थापित हैं। घाट के सम्मुख गंगा नदी में कर्णादित्य तीर्थ की उपस्थिति मानी गयी है। घाट स्थित महल का स्थापत्य एवं वास्तु पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है।
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लाल घाट
19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में तिजारा (राजस्थान) के राजा ने घाट के दक्षिणी भाग का निर्माण कराया था। जेम्स प्रिंसेप द्वारा घाट का उल्लेख किया गया है। सन् 1935 में राजा बलदेव दास बिड़ला ने घाट एवं समीप के महल को अपने निवास के उद्देश्य से क्रय कर महल एवं घाट का पक्का निर्माण कराया। इस घाट को पूर्व में कपड़े धोने हेतु इस्तेमाल किया जाता था इस कारण घाट को धोबिया घाट भी कहा जाता था। घाट पर ग्रोपेक्षेश्वर शिव एवं गोपीगोविन्द मंदिर भी स्थापित हैं। माघ माह की पूर्णिमा पर गंगा स्नान की विशेष महत्ता है। गंगा के तट पर बलदेव दास बिड़ला संस्कृत विद्यालय अवस्थित है, जिसे बलदेव दास बिड़ला द्वारा निर्मित कराया गया था एवं विद्यालय के निकट ही दूसरे भवन में छात्रों के निवास का प्रबंध भी किया गया है। घाट पर संत एवं तीर्थयात्री बिड़ला धर्मशाला में निवास करते हैं। संस्कृत विद्यालय एवं धर्मशाला बिड़ला ट्रस्ट द्वारा संचालित है। यहां नि: शुल्क शिक्षा, भोजन एवं वस्त्र की सुविधा भी उपलब्ध है। यहाँ स्थानीय लोग स्नान हेतु आते हैं परंतु माघ मास में स्नान हेतु भारी संख्या में श्रद्धालु आते हैं। वर्ष 1988 में राज्य सरकार की मदद से, सिंचाई विभाग ने घाट का पुनःनिर्माण कराया था।
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हनुमानगढ़ी घाट
वर्ष 1972 में घाट श्यामलदास के शिष्य टेकचंद्र साहू द्वारा पुनःनिर्मित कराया गया था। पूर्व में यह गाय घाट का भाग था। बिहार निवासी बाबा श्यामलदास घाट पर निवास करते थें। वर्ष 1950 में इन्होंने घाट पर हनुमान मंदिर की स्थापना की थी, जिसके कारण घाट का नाम हनुमानगढ़ी घाट पड़ा। हनुमान मंदिर के अतिरिक्त, घाट पर एक शिव मंदिर व महात्यागी आश्रम स्थित है। जिसका निर्माण श्यामलदास महात्यागी के शिष्य रमण महात्यागी द्वारा कराया गया था। इस आश्रम में छात्रों को संस्कृत, योग एवं ज्योतिष विद्या की शिक्षा दी जाती है | घाट के ऊपरी भाग में एक व्यायामशाला स्थित है, जहां कुश्ती एवं दंगल आदि क्रीड़ाओं का आयोजन किया जाता है।
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गाय घाट
19वीं शती ई0 में घाट का दक्षिणी भाग नेपाल नरेश राणा शमशेर बहादुर द्वारा निर्मित किया गया था एवं इसका उत्तरी भाग ग्वालियर राजवंश के दीवान मालवजी नरसिंह राव शितोले की पत्नी बालाबाई शितोले द्वारा निर्मित कराया गया था। ऐसा कहा जाता है कि गौहत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए लोग गाय घाट पर स्नान करते हैं, जिसके कारण घाट का नाम गाय घाट रखा गया है। इसके अतिरिक्त यह भी कहा जाता है कथा है कि प्राचीन समय में क्षेत्रीय लोग यहां अपनी गायों को स्नान कराने एवं उनकी प्यास बुझाने लाया करते थे, जिस कारण घाट का नाम गाय घाट पड़ा होगा। सवाई मानसिंह द्वितीय संग्रहालय से प्राप्त घाट से संबन्धित चित्रों से इस तथ्य की पुष्टि होती है | लिंगपुराण एवं काशीखण्ड के अनुसार
गोप्रेक्ष्य तीर्थ की स्थिति तट के समक्ष गंगा नदी में मानी गई है | तीर्थ में स्नान करने के बाद श्रद्धालु मुखनिर्मलिका गौरी की पूजा करते हैं। मुखनिर्मालिका गौरी को काशी की नौ गौरियों में स्थान प्राप्त है।
मुखनिर्मलिका गौरी के अतिरिक्त, हनुमान, शीतला, लक्ष्मीनारायण, शिव के मंदिर भी यहां पर स्थापित हैं। घाट के ऊपर दक्षिणी भाग में, नेपाल नरेश द्वारा बनवाया गया विशाल महल स्थित है, जिसे उद्योगपति डालमिया द्वारा सन् 1940 में क्रय कर लिया गया था। डालमिया की माता इस महल में निवास करती थीं। वर्तमान में महल डालमिया भवन के नाम से जाना जाता है। घाट की सीढ़ियों पर बहुतायत शिवलिंग एवं बैठी अवस्था में नन्दी की मूर्ति स्थापित है, जिसकी ऊंचाई लगभग तीन फीट है। विभिन्न धार्मिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी घाट पर किया जाता है, जिसमे मुण्डन, गंगा पूजन, पिण्ड दान एवं भजन/कीर्तन, संगीत, प्रवचन एवं कार्तिक माह में रामलीला का आयोजन महत्वपूर्ण हैं। वर्तमान में घाट का पुनर्निर्माण कराया गया है | स्थानीय लोग यहां पर नियमित रूप से स्नान करने एवं अन्य विशेष अवसरों पर आते हैं। वर्ष 1965 में राज्य सरकार द्वारा घाट का पुनर्निर्माण कराया जा चुका है। -
बद्री नारायण घाट
20वीं शती ई0 के आरंभ में नगर परिषद (नगर निगम) द्वारा घाट के उत्तरी भाग का पक्का निर्माण कराया गया था। घाट का प्राचीन नाम मेहता घाट था | घाट पर बद्रीनारायण (नर-नारायण) मंदिर भी स्थापित है, जिसके कारण प्राचीन समय से ही घाट को बद्री नारायण घाट के नाम से भी जाना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि नर-नारायण तीर्थ में स्नान करने के पश्चात श्रद्धालु बद्री नारायण के दर्शन करते हैं। बद्री नारायण मंदिर के अतिरिक्त, नागेश्वर शिव मंदिर भी यहीं पर स्थित है। पौष माह में, यहाँ स्नान करने से पुण्य फल की प्राप्ति होती है। धार्मिक महत्व होने के कारण ही यहां पर स्थानीय लोग एवं पर्यटक भ्रमण हेतु आते हैं।
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त्रिलोचन घाट
वर्ष 1740 में पेशवाओं की मदद से नारायण दीक्षित ने घाट का पक्का निर्माण करवाया था। घाट के क्षेत्र में त्रिलोचन महादेव मंदिर की उपस्थिति के कारण, इस घाट को त्रिलोचन घाट के नाम से जाना जाता है।
घाट का नाम भगवान शिव के तीसरे नेत्र की ओर संकेत करता है | इसी स्थान पर नर्मदा एवं पिप्पिला नदी का गंगा नदी में संगम होता है। ये तीन नदियां भगवान शिव के तीसरे नेत्र का प्रतिनिधितत्व करती हैं , जिसके कारण घाट को त्रिलोचन घाट कहा जाता है। काशी के प्रमुख तीर्थों में इस घाट का उल्लेख किया जाता है। त्रिलोचन मंदिर को औरंगज़ेब द्वारा नष्ट कर दिया गया था, जो 18वीं शताब्दी में पुणे के नाथूबाला पेशवा द्वारा निर्मित कराया गया था। वर्ष 1965 में यह मंदिर रामादेवी द्वारा पुनः निर्मित कराया गया। त्रिलोचन महादेव काशी के ओंकारेश्वर खंड के प्रमुख देवता हैं। जो श्रद्धालु ओंकारेश्वर यात्रा करना चाहते हैं वे नदी में स्नान एवं त्रिलोचन महादेव के दर्शन करने के बाद यात्रा प्रारंभ करते हैं। घाट के सम्मुख गंगा में पिप्पिला तीर्थ की स्थिति मानी गई है | वैशाख शुक्ल तृतीया पर त्रिलोचन महादेव का वार्षिक श्रृंगार किया जाता है। इस अवसर पर घाट पर घाट पर भारी संख्या में श्रद्धालु आते हैं तथा त्रिलोचन शिव के दर्शन के साथ ही भजन-कीर्तन, सत्संग आदि जैसे कार्यक्रम में भाग लेते हैं | इसके अतिरिक्त अन्य महत्वपूर्ण सांस्कृतिक कार्यक्रमों का भी यहां पर आयोजन किया जाता है। त्रिलोचन मंदिर के अतिरिक्त शांतेश्वर शिव, भीमेश्वर शिव मंदिर स्थित हैं। अरुणादित्य (सूर्य) को काशी के द्वादशादित्य के अंतर्गत पूजा जाता है। इस घाट पर सीढ़ियों का निर्माण शास्त्रीय विधान के अनुसार कराया गया है। गंगा तट से प्रत्येक 12 सीढ़ी पर चौकी का निर्माण कराया गया है, जो द्वादश शिव का सांकेतिक रूप हैं। ऐसा कहा जाता है कि वैशाख माह (21 अप्रैल-21 मई) में घाट पर स्नान करने का विशेष महत्त्व है। घाट की धार्मिक महत्ता के कारण स्थानीय लोग, अन्य देशों से भी श्रद्धालु दर्शन हेतु आते हैं। वर्ष 1965 में राज्य सरकार ने घाट का पुनर्निर्माण कराया था। इससे पूर्व घाट का दक्षिणी भाग कच्चा था, जो सन् 1988 में सिंचाई विभाग द्वारा राज्य सरकार की मदद से पक्का करा दिया गया था। -
गोला घाट
20वीं शताब्दी के आरंभ में नगर परिषद (वर्तमान में नगर निगम) ने घाट का पक्का निर्माण कराया था। स्थानीय लोगों के अनुसार घाट के ऊपरी भाग में गल्ला मण्डी (धान के क्रय-विक्रय का केंद्र) स्थित थी एवं स्थानीय लोगों द्वारा इसे गोला बाजार (मार्केट) कहा जाता था। घाट के ही क्षेत्र में केशव (विष्णु) मंदिर भी स्थित है। वर्ष 1988 में राज्य सरकार की मदद से सिंचाई विभाग ने घाट का पुनर्निर्माण कराया था।
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नन्दीश्वर घाट
वर्ष 1940 में, भवानीपुर (बंगाल) के द्वारिकानाथ चक्रवर्ती ने घाट का कुछ भाग पक्का करवा दिया था एवं घाट पर एक विशाल भवन का निर्माण कराया था। घाट के तट पर नन्दीश्वर शिव मंदिर भी स्थापित है। प्रथम बार इस घाट का उल्लेख “बनारस एण्ड इट्स घाट” में हुआ था। वर्ष 1988 में राज्य सरकार की मदद से सिंचाई विभाग ने घाट के शेष भाग का भी पक्का निर्माण कराया।
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शुका घाट
क्षेत्रीय लोग इस घाट को सक्का घाट कहते हैं। घाट के ऊपरी भाग में संत हरदास राम सेवाश्रम स्थित है एवं आश्रम परिसर में ही बाल चंद्रशेखर शिव मंदिर भी स्थापित है।
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तेलियानाला घाट
वाराणसी का प्राचीन नाला गंगा नदी में मिलता था, जिस कारण इसका नामकरण टेलियानाल हुआ। घाट के निर्माण के बाद1988 में सरकार ने नाले को नदी में गिरने से प्रतिबंधित कर दिया था। सवाई मान सिंह (द्वितीय) संग्रहालय, जयपुर में घाट के चित्रों (17वीं-18वीं शताब्दी) को प्रदर्शित किया गया है | घाट परिसर में ही शिव मंदिर भी स्थापित है, जिसकी विशेष धार्मिक महत्ता है। यहां पर श्रद्धालु पूजा अर्चना करने आते हैं।
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प्रहलाद घाट
20वीं शताब्दी के आरंभ में नगर परिषद (वर्तमान में नगर निगम) द्वारा घाट का पक्का निर्माण कराया गया था। ऐसा कहा जाता है कि घाट के निकट ही भगवान विष्णु ने अपने भक्त प्रहलाद की उसके पिता हिरण्यकश्यप के अत्याचारों से रक्षा की थी | इस घटना के पश्चात ही घाट का नाम प्रहलाद घाट रखा गया है। सवाई मान सिंह संग्रहालय, जयपुर में इस घाट का वर्णन चित्रों (17वीं-18वीं शताब्दी) के माध्यम से किया गया है। घाट स्थित मंदिरों में, प्रहलादेश्वर शिव, प्रहलाद केशव (विष्णु), शीतला, ईशानेश्वर शिव, एवं नृसिंह जगन्नाथ मंदिरों की स्थापना की गई है। तथ्यों के अनुसार, प्रारम्भ में महाकवि तुलसीदास इसी घाट पर निवास करते थे एवं कालांतर में असि घाट चले गए। जिस स्थान पर तुलसीदास निवास करते थे वहां पर एक तुलसी मंदिर (म.सं-बी 10/58) भी स्थित है। घाट के सम्मुख, गंगा नदी में बाण तीर्थ की स्थिति मानी गई है | यह वाराणसी के प्रमुख घाटों में से एक है। वैशाख मास की शुक्ल पक्ष तिथि से पूरे उत्साह के साथ यहां पर पांच दिवसीय नृसिंह मेले का आयोजन किया जाता है, जिसमे पूर्णिमा की झांकी मेले का सबसे महत्वपूर्ण एवं अद्वितीय भाग मानी जाती है। घाट पर समय-समय पर सांस्कृतिक एवं धार्मिक कार्यक्रमों का भी आयोजन किया जाता है। स्थानीय लोग यहां प्रतिदिन स्नान करने आते हैं एवं कुछ विशेष अवसरों पर यहां पर अन्य नगरों के लोग भी स्नान करने आते हैं। वर्ष 1980 में यह घाट दो भागों में विभाजित कर दिया गया था एवं नए घाट को निषादराज घाट नाम दिया गया।
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राजा घाट
वर्ष 1988 में राज्य सरकार की मदद से सिंचाई विभाग ने घाट के दक्षिणी भाग का पक्का निर्माण कराया था। काशी के शासक का पूर्वकाल में निवास क्षेत्र होने के कारण घाट का नाम राजा घाट पड़ गया। घाट के सम्मुख गंगा नदी में महिषासुर तीर्थ की स्थिति मानी गई है, जिसके कारण कुछ लोग इसे महिषासुर घाट के नाम से भी जानते हैं। राज घाट बनारस के प्राचीन घाटों में से एक है, जिसकी पुष्टि यहाँ के उत्खनन से प्राप्त अवशेषों द्वारा होती है | संस्तुति के अनुसार गहड़वाल शासकों का किला भी यहीं स्थित था | घाट परिसर में बद्रीनारायण, राम-जानकी, संत रविदास मंदिर एवं दो मठ भी स्थित हैं। ऐसी मान्यता है कि संत रविदास ने इसी घाट पर अपना निवास स्थान भी बनाया था।
घाट के सामने नदी में ही महिषासुर, वामन, उच्चलक, दत्तात्रेय, नर-नारायण एवं यज्ञवारह के तीर्थों की स्थिति मानी गई है | नाग पंचमी के अवसर पर घाट के ऊपरी भाग में श्री सत्संग परिवार व्यायामशाला में बड़े स्तर पर कुश्ती प्रतियोगिता का भी आयोजन किया जाता है। घाट के समीप ही 18वीं शताब्दी का लाल खाँ का मकबरा भी स्थित है। जो वर्तमान में पुरातत्व विभाग के संरक्षण में है। साक्ष्यों के अनुसार प्राचीन समय में काशी का नगर क्षेत्र इसी घाट के निकट था। आसपास के क्षेत्र धार्मिक, सांस्कृतिक केंद्र के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हैं। घाट पर डर्फ़िन ब्रिज का निर्माण कराया गया है। पुल से वाराणसी के सभी घाट देखे जा सकते है। कालांतर में शासन द्वारा पुल का नाम परिवर्तित कर मालवीय पुल कर दिया गया। लेकिन स्थानीय लोगों में यह राजघाट पुल नाम से ही प्रचलित है। पुल के समीप काशी रेलवे स्टेशन भी स्थित है। पुल रेल एवं सड़क मार्ग परिवहन के दृष्टिकोण से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है | यह पुल देश के पूर्वी भाग को शहर से जोड़ता है। वर्तमान में वसंता कालेज प्राचीन किला परिसर में स्थित है। प्रत्येक वर्ष काशी में दुर्गा पूजा, सरस्वती पूजा, विश्वकर्मा पूजा एवं अन्य उत्सव मनाए जाते हैं | नियमित रूप से स्थानीय लोग यहां पर आते हैं।
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आदिकेशव घाट
18वीं शताब्दी में बंगाल की महारानी भवानी ने घाट का निर्माण कर इसे पक्का करवाया था | पुनः 1906 में ग्वालियर के दीवान, राजा नृसिंह राव शितोले ने इसका पुनर्निर्माण कराया। ऐसा कहा जाता है कि भगवान विष्णु प्रथम बार काशी में आए एवं स्वयं की प्रतिमा की स्थापना की थी। वर्तमान में यह प्रतिमा आदिकेशव मंदिर में स्थापित है, जिसके कारण इस घाट को भी आदिकेशव घाट कहा जाता है। गंगा एवं वरुणा संगम स्थल पर घाट की उपस्थिति के कारण इस घाट को गंगावरुणा संगम घाट के नाम से भी जाना जाता है। आदि केशव, ज्ञान केशव, संगमेश्वर शिव, चिंताहरण गणेश, पंचदेवता एवं एक अन्य शिव मंदिर यहाँ पर स्थित है। ऐसी मान्यता है कि संगमेश्वर शिवलिंग प्रजापति ब्रह्मा द्वारा स्वयं स्थापित किया गया था | वाराणसी के घाटों की श्रृंखला के क्रम में, यह अंतिम घाट है।
मत्स्यपुराण के अनुसार यह घाट काशी के पांच प्रमुख घाटों में से एक है एवं काशी के प्रथम विष्णु तीर्थ के रूप में भी इसकी पूजा होती है। इन मान्यताओं के अतिरिक्त, यह भी कहा जाता है कि जब भगवान विष्णु काशी आए थे, तब उन्होंने यहां पर अपने चरण धोए थे। घाट के समक्ष पादेदिक, अंबरीश, महालक्ष्मी, चक्र, गदा, पद्मा, आदित्यकेशव एवं श्वेत दीप तीर्थ जो भगवान विष्णु से संबंधित हैं गंगा नदी में स्थित हैं। ऐसा कहा जाता है कि गंगा में स्नान या उसके स्पर्श अथवा उसके जल ग्रहण करने मात्र से मोक्ष की प्राप्ति होती है। घाट की स्थिति गहड़वाल राजवंश काल से ही है। घाट के निकट ही, गहड़वाल राजवंश के शासक का किला था। इनके दानपात्र से मुण्डन संस्कार, नामकरण, उपनयन एवं अन्य अनुष्ठान के निष्पादन का प्रमाण प्राप्त होता हैं। भाद्रपद माह में घाट पर वरुणी पर्व पर मेले का आयोजन किया जाता है। पंचतीर्थ के तीर्थयात्री इस घाट पर स्नान करने एवं पूजा करने के पश्चात ही अपनी यात्रा प्रारंभ करते हैं। यह यात्रा मणिकर्णिका घाट पर सम्पन्न होती है। घाट के ऊपरी भाग में एक व्यायामशाला स्थित है। वर्ष 1985 में राज्य सरकार ने घाट का सुदृढ़ीकरण कराया |
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अस्सी घाट
काशी के प्राचीन एवं प्रख्यात एवं महत्वपूर्ण घाटों में से एक असि घाट है। गंगा नदी के प्रवाह की दिशा में यह घाट काशी का प्रथम घाट माना जाता है। यह घाट काशी की दक्षिणी सीमा पर स्थित है, जहां गंगा एवं असि नदी (वर्तमान में विलुप्त) का संगम होता है।
असि नदी के संदर्भ में उल्लेख है कि दुर्गा ने शुंभ निशुंभ राक्षस का वध कर अपना खड्ग फेंक दिया, जहां खड्ग गिरा वहाँ पर धरती फट गई व उस स्थान से जलधारा बह निकली जो असि नदी कहलायी | इस घाट पर मंदिर 19वीं शताब्दी के पूर्वान्ह से स्थापित हैं। यहां स्थित लक्ष्मीनारायण मंदिर पंचायतन शैली में निर्मित है। यह मंदिर न केवल पाँच देवताओं का आवास है वरन् मंदिर निर्माण की प्राचीन नागर शैली का भी जीवंत उदाहरण है | यहां पर असिसंगमेश्वर मंदिर भी स्थापित है, जो भगवान शिव को समर्पित है। घाट पर जगन्नाथ मंदिर, पुरी के जगन्नाथ मंदिर का ही प्रतीक माना जाता है। 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में यह मंदिर जगन्नाथपुरी (उड़ीसा) के महंत द्वारा निर्मित कराया गया था। मान्यताओं के अनुसार यह मंदिर काशी का हरिद्वार कहा जाता है। इसके अतिरिक्त नृसिंह, मयूरेश्वर एवं बाणेश्वर मंदिर भी घाट पर स्थित हैं। इस घाट के विषय में कहा जाता है कि इस घाट पर स्नान करने से समस्त विश्व की प्रसन्नता एवं समृद्धि की प्राप्ति होती है।पूर्व में इस घाट का संपूर्ण क्षेत्र वर्तमान भदैनी घाट तक फैला हुआ था। तुलसीदास ने इस घाट की गुफाओं में निवास किया था तथा रामचरितमानस की रचना की थी | संवत 1680 में इसी घाट पर तुलसीदास जी ने शरीर त्याग दिया | 19वीं शताब्दी के बाद यह घाट पांच भागों अर्थात असि, गंगामहल (प्रथम), रीवाँ , तुलसी एवं भदैनी घाट में विभाजित हो गया था । वर्ष 1902 में बिहार राज्य के सुरसण्ड स्टेट की महारानी दुल्हिन राधा दुलारी कुंवर ने पूर्व काशी नरेश प्रभुनारायण सिंह से भूमि क्रय कर घाट और मंदिर का निर्माण कराया। जून 1927 में महारानी की आकस्मिक मृत्यु से घाट का निर्माण पूर्ण नही हो पाया, लेकिन उनके द्वारा निर्मित लक्ष्मीनारायण पंचरत्न मंदिर उनके धार्मिक विश्वास, कला एवं वास्तुकला के प्रति प्रेम का जीवंत उदाहरण है। वर्ष 1988 में सरकार की मदद से घाट का पक्का निर्माण कराया गया।
घाट सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक दृष्टिकोण से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है | प्रातः काल से ही लोग यहां पर वाराणसी के प्रातः कालीन सौन्दर्य को निहारते हैं | सांयकाल में (सूर्यास्त के बाद) घाट पर गंगा आरती का भी आयोजन किया जाता है। मुण्डन, गंगा आरती आदि जैसे धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन भी होता है। -
गंगा महल घाट (I)
20वीं शताब्दी के आरंभ में काशी नरेश प्रभुनारायण सिंह ने घाट पर एक विशाल महल का निर्माण कराया, जिसे गंगा महल कहा गया | बाद में घाट का नाम भी इसी महल के नाम पर गंगा महल घाट हो गया | गंगा महल राजपूत एवं स्थानीय वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण है। इस महल में कला एवं गायन ज्ञान के इच्छुक विदेशी पर्यटकों के निवास की व्यवस्था है। गंगा महल घाट असि घाट की उत्तरी सीमा से जुड़ा हुआ है। पूर्व में यह असि घाट का ही भाग था।
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रीवाँ घाट
पंजाब के राजा, महाराजा रणजीत सिंह के पुरोहित, लालामिसिर ने घाट एवं घाट स्थित महल का निर्माण कराया था। जिसके कारण घाट का पुराना नाम लालामिसिर घाट था। वर्ष 1879 में महाराजा रीवाँ ने घाट एवं महल को क्रय कर लिया, जिसके पश्चात घाट का पुनः नामकरण हुआ और ये रीवां घाट हो गया | महल का तटीय भाग अर्धस्तंभों के योग से निर्मित किया गया है। पूर्व में यह घाट भी असि घाट का भाग था। 20वीं शती ई० के उत्तरार्ध में रीवां नरेश ने इस महल को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय को दान कर है। विश्वविद्यालय ने इसे छात्रावास के रूप में निर्मित किया गया, जिसमे दृश्य एवं संगीत कला के छात्र रहते हैं।
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तुलसी घाट
18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में, बालाजी पेशवा ने घाट का पक्का निर्माण करवाया। इससे पहले यह घाट असि घाट का भाग था। महाकवि तुलसीदास ने रामचरित मानस के विभिन्न खण्डों की रचना इसी घाट (जब यह असि घाट का भाग था) पर की एवं बाद तुलसीदास जी ने यहां पर अपना प्राण त्याग भी किया | इसी कारण घाट का नाम तुलसी घाट पड़ा। सन् 1941 में बलदेव दास बिड़ला द्वारा घाट का पुनर्निर्माण कराया गया। घाट पर लोलार्क कुण्ड (लोलार्कादित्य) भी स्थित है जो द्वादशादित्य में से एक है | इसी कारण इस घाट को लोलार्क कुण्ड के नाम से भी जाना जाता है। धार्मिक रूप से यह घाट अत्यंत महत्त्वपूर्ण है | घाट के आसपास के क्षेत्र में लोलार्केश्वर, अमरेश्वर, भोलेश्वर, महिषमर्दिनी (स्वप्नेश्वरी), अर्कविनायक, हनुमान (18वीं एवं 20वीं शती ई०), राम पंचायतन (दो मंदिर) भी स्थापित हैं। ऐसा कहा जाता है कि तुलसीदास ने स्वयं हनुमान मंदिर (बी2/14) एवं एक व्यायामशाला का निर्माण कराया था। इस व्यायामशाला में प्रत्येक वर्ष कुश्ती आदि प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं |
लोलार्क कुण्ड में स्नान करने हेतु भाद्रपद शुक्ल षष्ठी की विशेष महत्ता है | मान्यताओं के अनुसार निःसंतान दंपत्ति संतान प्राप्ति की इच्छा से कुंड में स्नान करते हैं | ऐसी मान्यता है कि रोग से मुक्ति प्राप्त करने के लिए भी इस कुण्ड मे स्नान महत्त्वपूर्ण है |
आर्क विनायक मंदिर (56 विनायकों में से एक) भी इसी घाट पर स्थित है। इस मंदिर में पूजन करने के बाद तीर्थयात्री पंचक्रोशी यात्रा के लिए आगे बढ़ते हैं। नियमित समय पर रामचरित मानस का सामूहिक पाठ, नाग नथैया लीला, ध्रुपद संगीत मेला भी इस घाट पर आयोजित किये जाते हैं। संकट मोचन मंदिर के महंत की देखरेख में अन्य धार्मिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम घाट पर आयोजित किये जाते हैं। -
भदैनी घाट
भदैनी क्षेत्र के आस पास होने के कारण घाट का नामकरण भदैनी हुआ | घाट के नामकरण के पीछे का कारण उसके आसपास का क्षेत्र है जिसका नाम भदैनी है। वर्ष 1997 में घाट को नगर निगम द्वारा पक्का कराया गया। प्राचीन समय में यह घाट लोलार्क घाट का ही भाग था, जिसका उल्लेख पौराणिक विवरणों में प्राप्त होता है |
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जानकी घाट
1870 से पूर्व घाट कच्चा था एवं इसे नघंबर घाट के नाम से जाना जाता था। 1870 में बिहार प्रांत की सुरसण्ड स्टेट की महारानी रानी कुंवर ने घाट को पक्का कराया, जिसके पश्चात घाट का नाम जानकी घाट पड़ा। ऐसी मान्यता है कि रानी सीतामढ़ी जिले की राज्य की रहने वाली थीं, जहां सामान्यतः लोग सीता (जानकी) के भक्त होते हैं, जिसके कारण ही घाट का नाम जानकी घाट पड़ा। घाट के क्षेत्र में शिव मंदिर, राम-जानकी मंदिर एवं लक्ष्मीनारायण मंदिर स्थित है। वर्ष 1985 में राज्य सरकार की मदद से, सिंचाई विभाग ने घाट का पुनर्निर्माण कराया।
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माता आनंदमयी घाट
पूर्व में घाट कच्चा था एवं इसका नाम इमिलिया घाट था। वर्ष 1944 में माता आनंदमयी ने अंग्रेजों से भूमि का क्रय कर घाट का पक्का निर्माण कराया एवं घाट पर ही एक विशाल आश्रम का भी निर्माण कराया | इसके बाद से ही घाट को आनंदमयी घाट के नाम से जाना जाने लगा। आश्रम के परिसर में अन्नपूर्णा मंदिर, विश्वनाथ (शिव) मंदिर एवं यज्ञशाला भी स्थापित है। माता आनंदमयी कन्यापीठ भी भवन (बी2/294) में स्थापित है। यहां पर बालिकाएं गुरुकुल पद्धति से शिक्षा प्राप्त करती हैं। आश्रम द्वारा इन बालिकाओं को निःशुल्क आवास, वस्त्र एवं भोजन की सुविधा प्रदान की जाती है। वर्ष 1988 में सिंचाई विभाग ने इस घाट का सुधार कराया था।
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वच्छराज घाट
18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में वच्छराज नामक व्यापारी ने इस घाट का पक्का निर्माण कराया था। यहां पर यह भी मान्यता है कि सातवें जैन तीर्थकर सुपार्श्व्नाथ का जन्म इसी घाट घाट के आस पार के क्षेत्रों में जैन समुदाय के सदस्यों का बाहुल्य है | समय-समय पर यहां पर सांस्कृतिक कार्यक्रम, भजन एवं कीर्तन का भी आयोजन किया जाता है। घाट के समीप निवास करने वाले जनसामान्य प्रतिदिन यहाँ व्यायाम व स्नान करते हैं | माता आनंदमयी द्वारा निर्मित गंगा मंदिर, शिव मंदिर,
सुपार्श्वनाथ जैन (श्वेतांबर) मंदिर एवं गोपाल मंदिर (1968) भी इसी घाट पर स्थित हैं। -
जैन घाट
1931 में जैन समुदाय द्वारा इस घाट का पक्का निर्माण कराया गया था एवं नामकरण जैन घाट हुआ | पूर्व में यह वच्छराज घाट का भाग था | नित्य जैन समुदाय के लोग यहां पर धार्मिक अनुष्ठान संपादित करते हैं | जबकि घाट के उत्तरी छोर पर नाविकों के परिवार निवास करते हैं। प्रख्यात सुपार्श्वनाथ (दिगंबर) जैन मंदिर घाट पर ही स्थित है जो वर्ष 1885 में निर्मित किया गया था।
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निषादराज घाट
20वीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक निषादराज घाट प्रभु घाट का भाग था। 20वीं शती ई० के उत्तरार्ध में यह घाट अस्तित्व में आया। घाट पर नाविक परिवारों का बाहुल्य है | निषाद घाट पर निषाद राज मंदिर है। इस मंदिर का निर्माण निषाद समुदाय के लोगों द्वारा कुछ वर्षों पूव ही किया गया था।
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प्रभु घाट
20वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में बंगाल के निर्मल कुमार द्वारा घाट एवं घाट पर विशाल भवन का निर्माण कराया गया | निषादराज घाट की तरह ही यहां पर भी नाविक परिवारों का बाहुल्य है | वर्ष 1989 में राज्य सरकार की मदद से सिंचाई विभाग ने घाट का पुनर्निर्माण कराया था।
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पंचकोट घाट
19वीं शताब्दी के अंत में पंचकोट (बंगाल) नरेश ने घाट का निर्माण कराया था। इसी कारण इस घाट का नाम पंचकोट घाट रखा गया | गंगा तट के समीप राजा का भवन एवं उद्यान भी स्थित है। इस उद्यान में शिव एवं काली मंदिर भी स्थित है । इसके बाद घाट का पक्का निर्माण करवाया गया |
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चेत सिंह घाट
ऐतिहासिक दृष्टिकोण से घाट अत्यंत महत्त्वपूर्ण है | सन् 1781 में इस स्थान पर वारेन हेस्टिंग एवं चेत सिंह के जवानों के मध्य युद्ध हुआ था जिसमे चेतसिंह परास्त हुए थे एवं किले पर अंग्रेज़ो का आधिपत्य हो गया | 19वीं शताब्दी में महाराज प्रभुनारायण सिंह ने अंग्रेजों से किला प्राप्त कर लिया एवं उत्तरी भाग नागा साधुओं को दान कर दिया। घाट पर 18वीं शताब्दी के दो शिव मंदिर भी स्थापित हैं। घाट एवं घाट स्थित किला काशी नरेश बलवंत सिंह द्वारा निर्मित किया गया था। महाराज प्रभुनारायण सिंह के पूर्वजों (चेतसिंह) के नाम पर इस घाट का नामकरण चेतसिंह घाट किया गया | पहले यह घाट शिवाला घाट का ही भाग था। वर्ष 1958 में राज्य सरकार द्वारा घाट का पुनर्निर्माण कराया गया था।
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निरंजनी घाट
मूल रूप से यह घाट चेत सिंह घाट का ही भाग था। इस घाट पर नागा साधुओं का प्रख्यात निरंजनी अखाड़ा (बी3/155) स्थित होने के कारण घाट का नाम निरंजनी घाट हुआ | वर्ष 1958 में राज्य सरकार ने घाट का पुनर्निर्माण कराया था। अखाड़े के परिसर में निरंजनी पादुका मंदिर, गंगा मंदिर, दुर्गा मंदिर एवं गौरी-शंकर मंदिर स्थापित हैं।
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महानिर्वाणी घाट
निरंजनी घाट की उत्तरी सीमा पर महानिर्वाणी घाट स्थित है, जहां महानिर्वाणी समुदाय का प्रख्यात अखाड़ा भी स्थापित है। घाट का नाम इसी अखाड़े के नाम पर रखा गया है। 20वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में, अखाड़े की स्थापना की गई थी | पूर्व में अखाड़ा चेतसिंह किला का ही भाग था। अखाड़ा परिसर में नेपाल नरेश द्वारा निर्मित चार शिव मंदिर भी स्थित हैं | प्राप्त साक्ष्यों के अनुसार 7वीं शती ई० के लगभग सांख्य दर्शन के प्रणेता आचार्य कपिल मुनि इसी घाट पर निवास करते थे। अखाड़ा के समीप ही दीन-हीन संगति निवास भी स्थित है जो मदर टेरेसा द्वारा संचालित किया जाता था। यहां पर दिव्यांगजनों, असहायों एवं कुष्ठ रोगियों के उपचार की व्यवस्था है | वर्ष 1988 में राज्य सरकार की मदद से सिंचाई विभाग ने घाट का पुनर्निर्माण कराया था।
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शिवाला घाट
18वीं शती ई० में पूर्व काशी नरेश बलवंत सिंह ने घाट का निर्माण कराया था। इसके बाद घाट विभिन्न भागों में विभाजित कर दिया गया था। वर्तमान में घाट का उत्तरी भाग अपने पूर्व नाम से ही जाना जाता है। 19वीं शती ई० के उत्तरार्ध में नेपाल के राजा विक्रम शाह ने एक विशाल भवन का निर्माण कराया एवं साथ ही शिव मंदिर की भी स्थापना करवाई थी। घाट पर काशी नरेश ने ब्रहमेंद्र मठ की भी स्थापना करवाई थी जिसमे दक्षिण भारतीय तीर्थयात्री निवास करते हैं। घाट पक्का एवं स्वच्छ है एवं पर्यटकों, श्रद्धालुओं एवं स्थानीय लोगों द्वारा प्रायः स्नान एवं अन्य धार्मिक कार्यक्रमों हेतु प्रयोग किया जाता है। 1988 में, राज्य सरकार की मदद से सिंचाई विभाग ने घाट का पुनर्निर्माण कराया।
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गुल्लरिया घाट
20वीं शती ई० के आरंभ में वाराणसी के व्यापारी लल्लू जी अग्रवाल ने घाट का निर्माण कराया था। कुछ वर्ष पहले एक गुल्लर वृक्ष यहां पर स्थित था, इसी कारण इस घाट का नाम गुल्लरिया घाट रखा गया | वर्तमान में वह गुल्लर वृक्ष यहां पर स्थित नही है। पूर्व में घाट दण्डी घाट का भाग था। बाद में घाट का पक्का निर्माण कराया गया। घाट के ऊपरी भाग में पुराने भवनों के अवशेष देखने को मिलते हैं।
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डांडी घाट
वाराणसी का यह घाट दण्डी पंथ के अनुयायियों को समर्पित है एवं 20वीं शती ई० के आरंभ में वाराणसी के व्यापारी लल्लू जी अग्रवाल द्वारा निर्मित करवाया गया था। दण्डी स्वामी का मठ भी घाट पर स्थित है जिसके कारण घाट का नाम दण्डी घाट पड़ा था। शेरिंग प्रथम ने 1868 ई0 में इस घाट का उल्लेख किया। वर्ष 1958 में राज्य सरकार ने इस घाट का पुनर्निर्माण कराया।
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हनुमान घाट
ऐसी मान्यता है कि इस घाट पर स्थित हनुमान मंदिर की स्थापना महाकवि तुलसीदास द्वारा स्थापित की गई थी, जिसके कारण घाट का नाम हनुमान घाट पड़ा। प्रख्यात जूना अखाड़ा भी इसी घाट पर स्थित है। गीवार्णपदमंजरी (17वीं शताब्दी) के अनुसार घाट का पुराना नाम रामेश्वर घाट था। ऐसी मान्यता है कि भगवान श्री राम ने घाट पर अपनी काशी यात्रा के क्रम में स्वयं शिवलिंग की स्थापना कर पूजा की थी, जो वर्तमान में जूना अखाड़ा में स्थापित है। रामेश्वर शिव काशी के द्वादश ज्योतर्लिंग में से एक है। कालांतर में घाट का नामकरण हनुमान घाट हुआ जिसका उल्लेख जेम्स प्रिसेप ने अपने विवरण में किया था |
रामेश्वर, सीतेश्वर, लक्ष्मणेश्वर, भरतेश्वर, शत्रुघ्नेश्वर (सभी शिवलिंग) मंदिर, हनुमान मंदिर, विष्णु मंदिर एवं रुरु भैरव मंदिर भी इसी घाट पर स्थापित है। विष्णु मंदिर की विष्णु मूर्ति काले पत्थर से निर्मित है।
इस घाट की सांस्कृतिक एवं धार्मिक रूप से विशेष महत्ता है। 16वीं शताब्दी में यह घाट वल्लभाचार्य का निवास स्थान था | वल्लभाचार्य ने भगवान कृष्ण की लीलाओं का व्याख्यान किया | देश के विभिन्न भागों से श्रद्धालु एवं पर्यटक पूजा अर्चना एवं अन्य धार्मिक अनुष्ठानों के संपादन हेतु आते हैं | इस घाट पर अधिकांश दक्षिण भारतीय क्षेत्र के व्यक्तियों का बाहुल्य है | वर्ष 1984 में राज्य सरकार के सहयोग से सिंचाई विभाग ने घाट का पुनर्निर्माण कराया था। -
प्राचीन हनुमान घाट
महंत हरिहरनाथ द्वारा सन् 1825 में घाट का पक्का निर्माण कराया गया था। इस घाट की विशेष महत्ता है, क्योंकि संत वल्लभ (सी.ई. 1479-1531) जिन्होंने कृष्ण भक्ति के पुनरुत्थान के लिए दार्शनिक नींव रखी थी, का जन्म यहीं पर हुआ था एवं उनकी जयंती बैसाख मास में के 11वें दिन मनायी जाती है। इस घाट पर स्थित श्री राम के मंदिर में पांच शिवलिंग स्थापित है। शिवलिंगों का नामकरण राम (रामेश्वर), दो भाई (लक्ष्मणेश्वर एवं भरतेश्वर), उनकी पत्नी (सीतेश्वर) एवं वानर-सेवक (हनुमदीश्वर) पर किया गया है।
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कर्नाटक घाट
20वीं शती ई० के पूर्वाद्ध में यह घाट हनुमान घाट का ही भाग था। घाट का निर्माण मैसूर राज्य के सहयोग से किया गया था, जिसके कारण घाट का नाम मैसूर घाट रखा गया। कालांतर में मैसूर घाट का नाम ही कर्नाटक घाट हो गया | घाट पर धर्मशाला एवं एक शिव मंदिर भी स्थित है। घाट पर सती के विभिन्न स्मारक भी स्थित हैं। घाट पर स्नान आदि धार्मिक क्रियाएँ अधिकांशतः दक्षिण भारतीय श्रद्धालुओं द्वारा संपादित होती हैं |
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हरीशचंद्र घाट
घाट के नामकरण के संबंध में मान्यता है कि अयोध्या के राजा व सत्य के प्रतीक हरिश्चंद्र ने सत्य की रक्षा के लिए स्वयं को विक्रय किया था | इसी कारण घाट का नाम हरिशचंद्र घाट रखा गया था। राजा की सत्यवादिता के कारण राजा को पुनः उनका साम्राज्य व पुत्र प्राप्त हो गए | हरिशचंद्र घाट काशी के दो श्मशान घाटों में से प्रमुख है | ऐसी मान्यता है कि यहाँ पर अंतिम संस्कार करने से मृत व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति होती है: जिस कारण विभिन्न क्षेत्रों से लोग स्वजनों के अंतिम संस्कार हेतु यहाँ आते हैं | यहाँ शवदाह प्रारम्भ होने की कोई निर्धारित तिथि या समय का प्राप्त नहीं होता कि कब यहां पर प्रथम बार शवदाह किया गया था। यहां स्थित सती स्मारक (15वीं एवं 16वीं शताब्दी) में इस स्थल के श्मशान होने का प्रमाण प्रस्तुत करता है | ग्रंथों के अनुसार, जो व्यक्ति यहां पर मृत्यु को प्राप्त होता है उसे भैरवी यातना से मुक्ति मिलती है एवं मोक्ष की प्राप्ति होती है।
केदारमहात्म्य के अनुसार, केदारेश्वर अंतर्गृह यात्रा इसी घाट पर स्नान करने के पश्चात यहीं से प्रारंभ होती है। वर्तमान में यहां पर केवल शवदाह की क्रिया ही संपन्न होती है। 1988 से पहले घाट बालू के क्रय-विक्रय का केंद्र था, लेकिन घाट के पक्के निर्माण के पश्चात इस क्रय-विक्रय की प्रक्रिया को बंद कर दिया गया एवं विद्युतीय शवदाह की प्रक्रिया शुरु कर दी गयी। अब घाट पर परंपरागत शवदाह के साथ-साथ विद्युतीय शवदाह भी किया जाता है। घाट पर तीन शिव मंदिर भी स्थापित हैं, जिनमे कामकोटिश्वर मंदिर (शिव मंदिर) प्रमुख है | इस मंदिर का निर्माण दक्षिण भारतीय स्थापत्य के अनुसार किया गया है।
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लाली घाट
19वीं शती ई० में महाराजा विजयनगरम ने इस घाट का पक्का निर्माण कराया था। चम्पारण (बिहार) के संत लाली बाबा घाट पर निवास करते थे, जिस कारण इस घाट का नाम लाली घाट पड़ा। गूदड़दास का अखाड़ा भी यहीं पर स्थित है | 19वीं शताब्दी का कीरतेश्वर शिव मंदिर भी इसी घाट पर स्थित है। घाट के ऊपरी भाग पर लंबोदर, चिंतामणि एवं ज्येष्ठ विनायक, कीर्तेश्वर, जयंत शिवलिंग एवं महालक्ष्मी मंदिर भी स्थापित है। वर्ष 1988 में सिंचाई विभाग द्वारा घाट का पक्का निर्माण कराया गया था।
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विजयनगरम घाट
19वीं शती ई० के उत्तरार्द्ध में विजयनगरम महाराज ने घाट एवं घाट स्थित महल का निर्माण करवाया, जिसके कारण घाट का नाम विजयनगरम घाट पड़ा। 20वीं शती ई॰ के उत्तरार्ध में महाराजा ने महल संत जी को दान कर दिया था, जिसके बाद करपात्री जी इस महल में निवास करने लगे। 19वीं शताब्दी के मोक्षलक्ष्मी मंदिर एवं शिव मंदिर भी यहीं पर स्थित हैं |
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केदार घाट
केदारेश्वर शिव मंदिर घाट पर स्थित होने के कारण घाट का नाम केदारेश्वर घाट रखा गया। केदारेश्वर शिव काशी के द्वादश ज्योतर्लिंगों में से एक है जिसका संदर्भ काशी खंड में प्राप्त होता है | ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार केदार घाट को आदि मणिकर्णिका घाट में गिना जाता है।
केदारेश्वर शिव मंदिर हिमालय के केदारनाथ मंदिर का प्रतीक है | ऐसा कहा जाता है कि काशी स्थित केदारेश्वर की पूजा-अर्चना करने से हिमालय के केदारनाथ दर्शन के समान पुण्य प्राप्त होता है | इसके अतिरिक्त ऐसी भी मान्यता है कि प्रजापति ब्रह्मा जी ने भी केदारेश्वर मंदिर में पूजा-अर्चना की थी | स्थानीय लोगों का मत है कि यह काशी विश्वनाथ से वरिष्ठ हैं । विटंक नृसिंह मंदिर एवं भैरव मंदिर भी इसी घाट पर स्थित हैं । 16वीं शती ई० में कुमारस्वामी ने कुमारस्वामी मठ की स्थापना इसी घाट पर की थी। 18वीं शताब्दी में मठ द्वारा घाट का पक्का निर्माण कराया गया। श्रावण मास में गंगा स्नान कर पूजा-अर्चना करने का विशेष महत्त्व है | यहाँ पार्वती कुण्ड भी स्थित है। ऐसी मान्यता है कि इस कुण्ड में औषधीय गुण हैं, जो विभिन्न प्रकार की बीमारियों और रोगों को दूर करता है।
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चौकी घाट
ऐसा कहा जाता है कि घाट की गलियां चौमुहानी से जुड़ी हुई हैं, जहां से चार विभिन्न मार्ग केदारेश्वर, मानसरोवर, सोनापुर एवं चौथा घाट की ओर जाता है। चार मार्गों के कारण घाट को चौकी घाट के नाम से जाना जाता है। 19वीं शताब्दी में कुमारस्वामी मठ ने घाट का निर्माण कराया था। चौकी घाट विशाल पीपल के पेड़ के लिए प्रसिद्ध है, जो घाट की सीढ़ियों के ऊपरी भाग में स्थित है। इस घाट पर सर्प एवं नागों की पत्थर की प्रतिमाएं स्थापित हैं। इसके अतिरिक्त कुछ स्थानों पर नाग कूप भी देखे जा सकते हैं। ऐसे पर्व जिनपर सर्प पूजा का विधान है जैसे नाग पंचमी आदि पर तीर्थस्थलों का विशेष महत्त्व हैं | भगवान शिव एवं हनुमान को समर्पित मंदिर भी घाट पर स्थापित हैं। ऐसा कहा जाता है कि महाकवि तुलसीदास जी ने स्वयं यहां हनुमान मंदिर में हनुमान की प्रतिमा की स्थापना की थी।
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क्षेमेश्वर घाट
ऐसा कहा जाता है कि शिव भक्त क्षेमेश (राक्षस) द्वारा घाट के तट पर क्षेमेश्वर मंदिर की स्थापना की गई थी। इसी मंदिर के कारण इस घाट को क्षेमेश्वर घाट कहा जाने लगा। 19वीं शताब्दी में कुमारस्वामी मठ द्वारा घाट का पक्का निर्माण करवाया गया। घाट का पुराना नाम नाला घाट था।
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मानसरोवर घाट
आमेर (राजस्थान) नरेश मानसिंह ने घाट एवं मानसरोवर कुण्ड का निर्माण करवाया था | मान्यता है कि सरोवर में स्नान करने से कैलाश मानसरोवर में स्नान करने के समकक्ष पुण्य की प्राप्ति होती है। पास के क्षेत्र को मानसरोवर मोहल्ला कहा जाता है। वर्तमान में कुंड कूप के रूप में सुरक्षित है | सन 1950 में यह घाट पुनर्निर्मित किया गया
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नारद घाट
पूर्व में इस घाट का नाम कुवई घाट था। 19वीं शताब्दी के मध्य में इसी घाट पर नारदेश्वर (शिव) मंदिर की स्थापना हुई थी, जिसके बाद इस घाट का नाम नारद घाट पड़ा था। ऐसी मान्यता है कि नारदेश्वर शिव लिंग देवर्षि नारद द्वारा स्थापित किया गया है | 19वीं शती ई० के अंत तक दक्षिण भारतीय स्वामी सतीवेदानंद दत्तात्रेय द्वारा घाट का पक्का निर्माण करवाया गया था। घाट के ऊपरी भाग में दत्तात्रेयेश्वर (शिव) मंदिर एवं दत्तात्रेय मठ की स्थापना की गई है। घाट पर ही अत्रीश्वर मंदिर (10वीं शताब्दी का) एवं शिव मंदिर (20वीं शताब्दी का) स्थापित है। घाट पर स्थित पीपल वृक्ष के नीचे भगवान विष्णु की प्रतिमा के अवशेष (12-13 शताब्दी की) हैं।
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राज घाट
वर्ष 1807 में पुणे के पेशवा अमृतराव ने घाट का निर्माण कराया था, इसी कारण घाट को आरंभ में अमृतराव घाट के नाम से भी जाना जाता था। इसके बाद घाट का नाम राजाघाट पड़ा। अमृतराव द्वारा महल एवं श्री संस्थान अन्नपूर्णा मठ की स्थापना घाट पर करवायी गई | मठ द्वारा संत, साधुओं, जरूरतमंदों एवं निर्धनों को निःशुल्क भोजन एवं वस्त्र दान किया जाता है। अन्नपूर्णा मंदिर, लक्ष्मीनारायण मंदिर एवं शिव मंदिर भी इसी घाट पर स्थित हैं। विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम घाट पर आयोजित किये जाते हैं। मठ द्वारा घाट पर गंगा आरती का भी आयोजन किया जाता है।
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पाण्डेय घाट
19वीं शताब्दी में छपरा (बिहार) के बबुआ पाण्डेय द्वारा घाट का निर्माण कराया गया, जिसके कारण घाट का नाम पाण्डेय घाट रखा गया। गीवार्णपदमंजरी के अनुसार, 19वीं शताब्दी के पूर्व घाट को सर्वेश्वर घाट के नाम से जाना जाता था। घाट पर स्थित सर्वेश्वर शिव मंदिर से इस बात की पुष्टि होती है | सन् 1965 में राज्य सरकार द्वारा इस घाट का पुनर्निर्माण कराया गया था।