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सारनाथ, वाराणसी से उत्तर-पूर्वी में 13 किमी पर स्थित है एवं देश के बौद्धिक तीर्थ स्थलों में से सबसे पवित्र माना जाता है। यहां बोधगया में भगवान बुद्ध ने आत्मज्ञान प्राप्त कर यहाँ प्रथम उपदेश दिया। इसे महाधर्म चक्र प्रवर्तन के नाम से जाना जाता है। सभी धर्मों का केंद्र होने के कारण सारनाथ धर्म में आस्था रखने वालों के आकर्षण का केन्द्र है। यहां पर विभिन्न स्ट्रक्चर एवं इमारतें शहर की ऐतिहासिक एवं धार्मिक स्थलों की महत्वता को दर्शाते हैं। यह माना जाता है कि चौखण्डी स्तूप ऐसा स्थान है जहां भगवान बुद्ध प्रथम बार सारनाथ आएं एवं अपने प्रथम पांच शिष्यों से मिले थें।

शहर में विभिन्न ऐतिहासिक पुरातात्विक अवशेष भी संरक्षित हैं, जो सारनाथ को विश्वपटल पर महत्वपूर्ण बनाते हैं। 273-232 ई0पू0 में महान शासक अशोक ने आकर्षक स्तम्भों का निर्माण कराया जो बौद्ध संघ की नीव को दर्शाते हैं। देश का राष्ट्रीय चिन्ह मौर्य शासक अशोक द्वारा बनवाये गये स्तम्भ से ही लिया गया है, जो सारनाथ से ही प्राप्त हुआ है।

सारनाथ के दर्शनीय स्थल

चौखण्डी स्तूप वाराणसी से 13 किमी पर स्थित है। स्तूप का निर्माण कराते समय, इसम प्रयोग किए जाने वाली ईंट अष्टकोणीय टॉवर (चौथी शताब्दी से छठी शताब्दी तक गुप्ता काल के दौरान) जैसी थीं। इसके पश्चात, सन् 1588 में इसमे मुगल शासक अकबर द्वारा थोड़े से बदलाव किए गए।

जब भगवान बुद्ध प्रथम बार सारनाथ आएं तो, वे चौखण्डी स्तूप पर ही अपने प्रथम पांच शिषयों से भी मिलें। यह माना जाता है कि बोध गया में प्रबोधन प्राप्त कर वे 528 बीसी के बाद सारनाथ वे अपने शिष्यों महानमा, कौड्डन, भदिया, वप्पा एवं अस्वाजिता से मिलने आए थें। वे इन लोगों से मिलें एवं खुद को प्राप्त ज्ञान को अपने शिष्यों को दिया।

निर्वाण प्राप्ति के पश्चात भगवान बुद्ध के अस्थि अवशेष को संरक्षित कर स्तूप का निर्माण मौर्य शासक अशोक द्वारा करवाया गया। पांचवी शताब्दी के दौरान, इसका पुनःनिर्माण किया गया एवं इसमे सुधार किए गए। स्तूप का आकार सख्त एवं लंबा (सिलेंड्रिकल) है।

धामेक स्तूप के पास ही, सारनाथ का एक और खजाना, धर्मराजिका स्तूप स्थापित है। इसका निर्माण सम्राट अशोक ने कराई थी, जिसे बाद में जगत सिंह द्वारा सन् 1794 में विध्वंस कर दिया गया था, जिसका मुख्य उद्देश्य उसके ईंटो को दूसरे निर्माण कार्य हेतु इस्तेमाल करना था, जिसके चलते एक डिब्बा (बॉक्स) प्राप्त हुआ जिसमे अस्थियां मिली। यह माना जाता है कि इस बॉक्स में मिली अस्थियां भगवान बुद्ध की हैं। भरतीय कलकत्ता संग्रहालय में इस बॉक्स को सुरक्षित रखा गया है। ऐसा विश्वास है कि इन अस्थियों को जगल सिंह द्वारा गंगा में विसर्जित कर दिया गया था।

उत्खनन से प्राप्त पुरावशेषों को संरक्षित करने के उद्देश्य से सारनाथ में एक पुरातात्विक संग्रहालय की स्थापना की गई। इस संग्रहालय में विभिन्न बौद्ध कालीन पुरावस्तुएं, देवी-देवताओं की प्रतिमाएं एवं अन्य पुरावस्तुएं पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र है। संग्रहालय में संरक्षित पुरावशेषों की फोटोग्राफी करने की अनुमति नही है।

समय: सुबह 10:00 बजे से शाम 05:00 बजे तक। शनिवार से बृहस्पति वार तक संग्रहालय खुला रहता है।


अशोक स्तम्भ की प्रारम्भिक ऊंचाई 55 फुट थी। वर्तमान समय में इसकी ऊंचाई केवल 7 फुट 9 इंच है। स्तम्भ का ऊपरी सिरा सारनाथ संग्रहालय में है जो भारत के राष्ट्रीय चिन्ह भी है। स्तम्भ पर लिखित अशोककालीन ब्राम्ही लिपि के लेख में सम्राट ने आदेश दिया है की “जो शिक्षु युया शिक्षुणी संघ में फूट डालेंगे या संघ की निंदा करेंगे, उन्हे सफ़ेद वस्त्र पहनाकर संघ से निकाल दिया जाएगा। दूसरा लेख कुषाण काल का व तीसरा लेख गुप्तकाल का है, जिसमे सम्मितिय शाखा के आचार्यों का उल्लेख है।

मंदिर का निर्माण सन् 1931 में श्रीलंका की महाबोधि सोसाइटी द्वारा सारनाथ में करवाया गया था। ऐसी मान्यता है कि भगवान बुद्ध के जीवन से संबंधित मंदिर की दीवारों पर सुंदर भित्तिचित्र अंकित हैं। इसी स्थान पर प्रथम वर्षावाज व्यतीत किया था।

यह वृक्ष मूलगंध कुटी विहार बौद्ध मंदिर के निकट स्थित है। यह वृक्ष बौद्ध अनुनायियों में विशेष महत्ता प्राप्त है। मान्यता है कि इस वृक्ष के नीचे ही भगवान बुद्ध को बोध प्राप्ति हुई थी। नवंबर 12, 1931 को भारत की महाबोधि सोसाइटी के संस्थापक (श्री देवामित्त धम्मपाल) ने बोधि वृक्ष, अनुराधपुर, श्री लंका की एक शाखा तोड़कर यहां पर रोपित किया।

इस मंदिर पर बने हुए नक्काशीदार गोले और नतोढर ढलाई , छोटे-छोटे स्तम्भों तथा सुन्दर कलापूर्ण कटाहों से यह निश्चित हो जाता है कि इसका निर्माण गुप्त काल में हुआ था परन्तु इसके चारों ओर मिटटी और चुने की पक्की फर्शों तथा दीवारों बाहरी भाग में प्रयुक्त अस्त-व्यस्त नक्काशीदार आधार पर कुछ विद्वानों ने इसे 8 वीं सदी के लगभग का माना है।

जापानी कला शैली में निर्मित यह बौद्ध मंदिर सभी कला-प्रेमियों व धर्मानुरागियों के आकर्षण का केंद्र है।

इस मंदिर का निर्माण फरवरी, 1908 में हुआ था। फरवरी, 2008 में इस मंदिर की स्थापना के 100 वर्ष पूरे हो चुके हैं। प्राचीन बौद्ध मंदिरों में से एक यह मंदिर सारनाथ में डियर पार्क के समीप स्थित है।

भारत में भगवान बुद्ध की सबसे लंबी प्रतिमा (80-फीट लंबा) वाराणसी के पास सारनाथ थाई मंदिर में स्थापित है। इस प्रतिमा का निर्माण करने में 815 पत्थरों का इस्तेमाल हुआ है। इस प्रतिमा का निर्माण पूरा होने में 14 वर्ष लग गए थें।

श्री दिगम्बर जैन मंदिर को जैन भक्तों के विभिन्न धर्मानुरागियों के मध्य एक पवित्र तीर्थस्थल के रूप में मान्यता प्राप्त है। यह दिगंबर मोनास्टिसिज्म हेतु धार्मिक स्थान है जो जैन धर्म की शाखा माना जाता है। श्री दिगम्बर जैन मंदिर हेतु सबसे निकट लैण्डमार्क धमेख स्तूप है।

डियर पार्क के पश्चिम में, सारनाथ का बर्मिस बौद्ध मंदिर स्थित है। यहां पर भारी संख्या में श्रद्धालु दर्शन-पूजन हेतु आते हैं। बौद्ध परंपरा, थेरवाद को देखते हुए वर्ष 1910 में इसका निर्माण हुआ था।

सारनाथ शब्द सारंगनाथ या डियर गॉड (भगवान) से उत्पन्न हुआ है। प्रख्यात चीनी साधु के अनुसार डियर पार्क का विकास वाराणसी के जातक शासक द्वारा किया गया है। इस पार्क के निर्माण का मुख्य उद्देश्य हिरणों का स्वतंत्र विचरण था। पार्क में पक्षियों की विविध प्रजातियाँ भी पायी जाती है।

अंतिम नवीनीकृत तिथि November 28, 2020 at 9:47 am