काशी खण्ड में में वर्णित कथा के अनुसार जब पाद्म कल्प के मन्वन्तर में सर्वलोक में बड़ी भारी अनावृष्टि हुई थी तब समस्त प्राणीगण परमपीड़ित हो गये थे। इसकी सूचना से भगवान ब्रह्मा व्याकुल हो गये , तभी उनकी दृष्टि विख्यात राजा रिपुञ्ज्य पर पड़ी जो महाक्षेत्र में निश्चलेन्द्रिय होकर तपस्या कर रहा था। ब्रह्मा जी ने प्रसन्न होकर राजा का नाम दिवोदास रखा तथा उसे पृथ्वी के शासन संभालने का अनुग्रह किया। उत्तर स्वरूप राजा दिवोदास ने भगवान ब्रह्मा की यह अनुग्रह स्वीकार तो कर ली परंतु ब्रह्मा जी से यह प्रतिज्ञा ली कि उसके राज्य में देवता लोग स्वर्ग में ही रहें तभी उसका राज्य निष्कण्टक रहेगा। राजा दिवोदास की प्रार्थना स्वीकार कर भगवान ब्रह्मा ने समस्त देवताओं को स्वर्ग प्रस्थान करने को कहा। परंतु महादेव से उनकी प्रिय नगरी छोड़ के जाने को कहना इतना सरल न था। अतः जब मन्दराचल के तप से प्रसन्न हो भगवान शिव उसे वर देने चले तथा मन्दराचल ने भगवान शिव से पार्वती व परिवार सहित उसपर वास करने का वर माँगा तब सही क्षण प्राप्त कर भगवान ब्रह्मा ने भगवान शिव को सर्वलोक में फैली अराजकता तथा उसके निवारण हेतु राजा दिवोदास द्वारा पृथ्वी के शासन हेतु की गई प्रतिज्ञा का वर्णन दिया। ब्रह्मा जी ने भगवान शिव से काशी छोड़ मन्दराचल में निवास करने की आग्रह की। भगवान विश्वेश्वर ने ब्रह्मा जी की बात मानकर एवं मन्दराचल की तपस्या से संतुष्ट होकर काशी छोड़ मन्दराचल पर गमन किया। भगवान विश्वेश्वर के साथ समस्त देवगण भी मन्दराचल को प्रस्थान कर गए।
प्रतिज्ञा अनुसार राजा दिवोदास पृथ्वी पर धर्मपूर्वक राज्य करने लगा तथा दिन-प्रतिदिन महान होने लगा तथा वह राजा साक्षात धर्मराज हो गया। इस कालावधि में भले ही भगवान विश्वेश्वर मन्दराचल में वास कर रहे थे परंतु वह काशी के वियोगजनित संताप से व्याकुल थे। अतः काशी में पुनः गमन हेतु भगवान शिव ने योगिनियों को भेज दिवोदास के राज्य में त्रुटि निकालने भेजा जिससे प्रतिज्ञा अनुसार राजा का उसके राज्य से उद्वासन किया जा सके एवं शिवजी काशी में पुनः आगमन कर सकें। परंतु जब भेजी गई योगिनीमण्डल भी प्रत्यावर्तित न हुई तब काशी के समाचार जानने की इच्छा से शिवजी ने सूर्यदेव को काशी भेजा। काशी जैसी मुक्तिदायिनी रम्यपुरी की दर्शन-लालसा से लालित आर्कदेव का मन अत्यंत लोल हो उठा। अतः योगिनियों की भाँति सूर्य देव नाना वेश बना-बनाकर जब राजा दिवोदास के राज्य में कहीं भी कोई छिद्र न पा सके तो वह ‘बारह संख्यक’ प्रमुख अर्कों के रूप में वाराणसी के विभिन्न स्थलों में क्षेत्र-संन्यास की विधि से प्रतिष्ठित हो गये। अर्कों के द्वादश नाम निम्नवत हैं: