काशी खण्ड में वर्णित कथा के अनुसार जब परमप्रतापी पाण्डव अपने भाइयों की शत्रुता के कारणवश विपत्ति में पड़कर वनवासी हुए तब उनकी सहधर्मिणी द्रौपदी भी पति की विपत्ति से दुःखी होकर काशी में पहुँच सूर्य देव की आराधना में लीन हो गई। अनन्तर द्रौपदी की आराधना से प्रसन्न होकर सूर्यदेव ने उसे वरदान स्वरूप अक्षय करछुल, ढँपना सहित बटलोही सौंपी तथा यह वरदान दिया कि जब तक द्रौपदी उस बटलोही से भोजन नहीं करेगी तब तक चाहे जितने अन्नार्थी जन हों, सभी लोग तृप्त हो जाएँगे। तब से यहाँ विराजमान सूर्य देव द्रुपदादित्य नाम से विख्यात हुए। मान्यता अनुसार विश्वेश्वर के दक्षिणभाग में स्थित द्रुपदादित्य की जो भी आराधना करता है उसे क्षुधा की बाधा कभी नहीं होती। साथ ही ऐसा माना जाता है कि जो पुरुष अथवा स्त्री भक्तिभाव से विश्वेश्वर के दक्षिण भाग में द्रौपदी की प्रतिमा की पूजा करते हैं उन सबक़ों कभी प्रियजन के वियोग का भय नहीं होता।
यह मंदिर श्रद्धालुओं द्वारा दर्शन-पूजा हेतु दिन भर खुला रहता है।
वाराणसी में द्रौपदादित्य विश्वेश्वर मंदिर के समीप सीके0 35/2, अक्षय वट पर स्थित है।