काशी में स्थित घृष्ष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्र राज्य के अंतर्गत दौलताबाद स्टेशन से 12 मील दूर बेरूल गांव के समीप स्थित घृष्ष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग की प्रतिकृति है जो द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक है। काशी खण्ड के अनुसार वाराणसी में घृष्ष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग बटुक भैरव के निकट स्थित है।
शिव महापुराण में घुश्मेश्वर नामक परम उत्तम ज्योतिर्लिंग के आविर्भाव एवं माहात्म्य के सम्बन्ध में वर्णित कथा के अनुसार, दक्षिण दिशा में देवगिरि नामक पर्वत है, जिसपर भारद्वाज ब्राह्मण गोत्र में उत्पन्न सुधर्मा नामक एक वेदज्ञ विद्वान ब्राह्मण रहता था। वह ब्राह्मण अत्यंत धनी, दानवीर, गुणग्राही एवं शिव आराधना और शिवभक्तों का सत्कार करने वाला शैव था। उसकी अर्धांगिनी सुदेहा भी एक सुंदर एवं अत्यंत शिवभक्त थी और विभिन्न विद्याओं में निपुण थी। जब उसकी अधिक आयु व्यतीत होने के उपरांत भी उसे पुत्र न हुआ तब मातृ सुख प्राप्त करने के लिए सुदेहा ने हर असंभव प्रयास किए, परंतु उसका कोई परिणाम न निकला। अतः व्याकुल होकर सुदेहा अपने स्वामी के पास बैठकर आग्रह करने लगी कि जैसे भी हो, किसी न किसी उपाय से आप पुत्र उत्पन्न करें अन्यथा मैं प्राण त्याग दूँगी।
अपनी अर्धांगिनी के मुख से यह कथन सुनकर ब्राह्मण सुधर्मा भी व्याकुल हो उठे और भगवान शिव का स्मरण करने लगे, फिर उन्होनें अग्नि के सामने दो फूल चढ़ाए और मन में दाहिने पुष्प की कामना से पुत्र होने का विचार किया और पत्नी सुदेहा से कहा कि इन दोनों पुष्पों में से एक को ग्रहण करे। मोहवश शीघ्रता में वह भूल गयी और जो पुष्प उसे ग्रहण करना चाहिये था उसे ग्रहण न कर सकी। यह देख उस ब्राह्मण ने एक दीर्घ नि:श्वास लेकर अपनी स्त्री से बोला कि जो ईश्वर ने रचा है, उसके विपरीत कुछ नहीं हो सकता। हे प्रिये तुम पुत्र प्राप्त करने की आशा को त्यागकर प्रभु की सेवा करो। परन्तु सुदेहा ने पुत्र का आग्रह न छोड़ा और हाथ जोड़ सिर झुकाकर अपने स्वामी से बोली- “यदि मुझसे पुत्र नहीं होगा, तो मेरी आज्ञा से आप दूसरा विवाह कर लीजिए जिससे अवश्य ही हमें संतान सुख की प्राप्ति हो सकेगी। ब्राह्मण ने सुदेहा के इस कथन पर असहमति दर्शाते हुए कहा कि यह ईश्वर के प्राकृतिक प्रवाह में हस्तक्षेप करना है, ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध जाना अनुचित है। कृपया तुम इस विचार को त्याग कर ईशवंदना में लीन हो जाओ। मातृसुख से वंचित रहने के कारण निराश होकर, सुदेहा ने अपनी बहन घुश्मा की शादी अपने स्वामी से करवा दी। इस प्रकार स्त्री द्वारा प्रार्थना करने पर ब्राह्मण ने घुश्मा से विवाह किया। घुश्मा अपनी बहन की आज्ञा ग्रहण कर यथावत् नित्य एक सौ पार्थिव लिंग बनाकर शास्त्रोक्त विधि से उनका पूजन करती रही और उन्हें निकट ही एक सरोवर में प्रवाहित करती रही जिसके फलस्वरूप भगवान शिव की कृपा से, घुश्मा गर्भवती हुई और उसके गर्भ से एक सर्वाग सुन्दर, भाग्यवान् तथा सर्वगुण सम्पन्न श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न हुआ। उसे देखकर ब्राह्मण बहुत प्रसन्न हुआ। अपनी छोटी बहन को पुत्रवती देखकर सुदेहा को अत्यंत दु:ख हुआ और वह उससे ईर्ष्या करने लगी। जब वह पुत्र बड़ा हो गया तब अन्य ब्राह्मण उसका विवाह करने आये। सुधर्मा ने सविधि उसका विवाह किया तथा पुत्रवधू को घर ले आई।
अपनी बहन का एक सुखी सम्पन्न परिवार देखकर ईर्ष्या से सुदेहा की बुद्धि भ्रष्ट हो गयी तथा एक दिन उसने रात में सोते हुये पुत्र की हत्या कर उसके क्षत-विक्षत शव को उसी सरोवर मे प्रवाहित कर दिया जहाँ घुश्मा नित्य पार्थिव लिंगों का विसर्जन करती थी। इस कुकृत्य के पश्चात सुदेहा घर लौट कर आनंदपूर्वक सो गयी। घुश्मा एवं सुधर्मा प्रात: उठकर अपनी नित्य क्रिया में लग गए। प्रातः काल ज्येष्ठ पत्नी सुदेहा भी उठ कर अपने नित्य कर्मों को बड़े आनन्दपूर्वक करने लगी, क्योंकि उसने स्वयं अपनी ईर्ष्या की अग्नि शांत कर ली थी। पुत्रवधू ने प्रात: काल उठकर अपने स्वामी की रक्त-रंजित शैय्या को देखा जिस पर शरीर के कुछ अंग दिखाई दिये, इससे भयभीत होकर अपनी सास घुश्मा के पास जाकर उसने रोते हुए सम्पूर्ण दृश्य बताया और विलाप करने लगी। परन्तु इतने विकट कष्ट में भी घुश्मा ने अपना नित्य पार्थिव-पूजन नहीं त्यागा और पार्थिव-लिंग के नामों का उच्चारण करते हुये वह सरोवर के तट पर पार्थिव-विसर्जन करने गयी। विसर्जन को जाते समय उसने देखा कि उसका पुत्र सरोवर के किनारे पर खड़ा है। घुश्मा ने अचंभित होकर उसकी ओर देखा तो पुत्र ने कहा- हे माता ! तुम्हारे पुण्य प्रताप से तथा सदाशिव भगवान की कृपा से मुझे यह जीवन दान मिला है। उसी समय ज्योति: स्वरूप महेश्वर वहाँ प्रकट हो गये और बोले “मैं तुम्हारी भक्ति से अत्यंत प्रसन्न हूँ। तुम्हारी बहन ने ही तुम्हारे पुत्र की हत्या की थी।“ घुश्मा ने भगवान शिव से सुदेहा को क्षमा करने का आग्रह किया। उसकी उदारता से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उसे एक वरदान मांगने को कहा। घुश्मा ने कहा कि “हे नाथ ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं और वर देना चाहते हैं, तो मेरी यही प्रार्थना है कि संसार की रक्षा के लिये आप सर्वदा यहीं निवास कीजिये तथा आप मेरे नाम से विख्यात हों। भगवान शिव “एवमस्तु अर्थात् ऐसा ही होगा” कहकर घुश्मेश नाम से शुभ ज्योतिर्लिंग रूप में वहाँ स्थापित हो गये और कहा कि एक सौ पीढ़ी तक ऐसे ही श्रेष्ठ पुत्र तुम्हारे वंश में उत्पन्न होंगे। उसी समय वहाँ सुधर्मा और सुदेहा भी आ गए तथा घुश्मा के साथ मिलकर सबने शिवजी की एक सौ परिक्रमा कर पूजन किया और अपने जीवन की मलिनता त्यागकर परम सुख पाया। तब से घुश्मेश नामक शिवजी का ज्योतिर्लिंग वहाँ प्रतिष्ठित हुआ, जो अपने दर्शन और पूजन से भक्तों के सुख की वृद्धि करता है और वह घुश्मेश्वर अथवा घृष्ष्णेश्वर के नाम से विख्यात हुए तथा उस सरोवर का नाम शिवालय हो गया।
स्थानीय निवासियों के अनुसार महाशिवरात्रि, श्रावण मेला, बैकुंठ की कालावधि में मंदिर में भगवान शिव के जलाभिषेक के लिए भारी संख्या में तीर्थयात्री आते हैं।
वाराणसी में घृष्ष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग का मंदिर कमच्छा देवी मंदिर परिसर वाराणसी में बटुक भैरव के पास स्थित है। मंदिर दर्शन/ यात्रा हेतु स्थानीय परिवहन अत्यंत सुलभ है।