वाराणसी में स्थित भीमेश्वर ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्र के पुणे क्षेत्र में सह्य पर्वत पर स्थित भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग की प्रतिकृति है। काशीखण्ड के अनुसार वाराणसी में स्थित भीमेश्वर ज्योतिर्लिंग काशी करवट मंदिर में स्थापित है।
शिव महापुराण में भीमेश्वर ज्योतिर्लिंग के प्राकट्य एवं महात्म्य के संबंध में यह कथा वर्णित है कि पूर्वकाल में भीम नामक एक महापराक्रमी राक्षस था जो धर्म नाशक एवं समस्त प्राणियों को दु:खदायी था। वह महाबली राक्षस कुम्भकर्ण एवं कर्कटी का पुत्र था जो अपनी माता के साथ सह्य पर्वत पर निवास करता था। एकदा अपने पिता के बारे में पूछने पर उसकी माता ने उसे यह बताया कि उसका पिता रावण का भाई कुम्भकर्ण था जिसकी श्री राम से युद्ध के दौरान मृत्यु हो गई थी। तत्पश्चात कर्कटी भीम के साथ अपने माता-पिता के पास ही निवास करने लगी। एकदा अगस्त्य ऋषि ने कर्कटी के माता-पिता को अपने तप के तीव्र प्रभाव से भस्म कर दिया।
यह ज्ञात होने के उपरांत, महापराक्रमी भीम को भगवान पर अत्यंत क्रोध आया। उसने यह संकल्प लिया कि यदि वह कुम्भकर्ण का पुत्र है तो वह भगवान विष्णु को अवश्य पीड़ित करेगा। ऐसा विचार कर वह ब्रह्मा जी को प्रसन्न करने हेतु परम तप के लिए प्रस्थान कर गया। उसके एक हजार वर्ष तक कठिन तप करने से ब्रह्मा जी प्रसन्न होकर उसके समक्ष प्रकट हुए तथा उससे अभिलाषित वर माँगने को कहा। तब राक्षस ने ब्रह्मा जी से अपार बल प्राप्त करने का वर माँगा। ब्रह्माजी “एवं अस्तु” कहकर अन्तर्धान हो गये।
ब्रह्माजी का बल प्राप्त करके राक्षस भीम ने इन्द्रादिक देवताओं से युद्ध में जीत प्राप्त कर उन्हें पदच्युत कर दिया तथा राक्षस भीम ने भगवान् विष्णु को भी युद्ध में पराजित कर दिया। तत्पश्चात उसने दक्षिण दिशा में कामरूप के स्वामी को युद्ध में पराजित कर उसका ताड़न किया। कामरूप का स्वामी कामरूपेश्वर शिवजी का बड़ा भक्त था। उसने कारागार में भी अपने कल्याण की इच्छा से शिवजी की उत्तम पार्थिव मूर्ति बनाकर उसकी नित्य पूजा-अर्चना आरंभ कर दी। उसकी अर्धांगिनी दक्षिणा ने भी तदनुसार पार्थिव विधान किया। इस प्रकार दोनों समर्पण भाव से भक्तों के कल्याणकर्ता शिवजी की आराधना में लीन हो गए। इस कालावधि में ब्रह्म वरदान से अभिमानी राक्षस यज्ञ के सब धर्म-कर्म का लोप कर रहा था। उसने इन्द्रादिक देवताओं, ऋषियों एवं ब्राह्मणों को अत्यंत पीड़ित किया। वे सभी विष्णु जी के साथ शिवजी की शरण में गये तथा अनेक स्तोत्रों से स्तुति करके शिवजी को प्रसन्न किया। प्रसन्न होकर शिवजी बोले “हे विष्णो ! हे देवताओं ! हे ऋषियों ! मैं तुमसे प्रसन्न हूँ वर माँगो।“ तब देवताओं ने कहा “हे देवेश ! आप अन्तर्यामी हैं। आपको कुछ अज्ञात नहीं हैं। कुम्भकर्ण से उत्पन्न हुआ कर्कटी का पुत्र बली राक्षस भीम ब्रह्माजी के वरदान से देवताओं को पीड़ित कर रहा है। हे प्रभो ! हे महेश्वर ! आप उस दु:खदायी राक्षस भीम का संहार कीजिये और हमपर कृपा कर इस कार्य में विलम्ब न कीजिये।“ यह सुनकर शिवजी ने देवताओं से कहा कि वे लोग जाकर कामरूपेश्वर से उनका भजन करने को कहें। फिर वह उसे मारने जायेंगे। देवताओं ने तदनुसार कामरूपेश्वर के पास जाकर शिवजी के भजन करने को कहा तथा वह सभी अपने स्थान को प्रस्थान कर गए।
तदनन्तर शिवजी अपने गणों को साथ लेकर वहाँ गये जहाँ वह महाबली कामरूपेश्वर पार्थिव लिंग के आश्रित ध्यानमग्न था। इतने में किसी ने जाकर राक्षस को यह सूचित कर दिया कि राजा उसके मारण का प्रयास कर रहा है। यह सुनते ही राक्षस भीम अत्यन्त क्रोधित होकर हाथ में तलवार लेकर राजा को मारने गया। वह राजा से बोला “हे दुष्टात्मन् ! तू यह क्या कर रहा है ? सच-सच बताओ। अन्यथा मैं तुझे अभी मार डालूँगा।“ कामरूपेश्वर का भगवान शिव में पूर्ण विश्वास था। अतः उसने उस विश्वास को हृदय में धारण कर धैर्यपूर्वक भगवान शिव की प्रार्थना की तथा राक्षस का तिरस्कार करते हुये कहा “हे राक्षसाधम ! तू मुझे क्या भय दिखलाता है। मैं चराचर जगत् के स्वामी साक्षत् भगवान् शंकर को भजता हूँ, जो अपने भक्तों के पालनकर्ता हैं।“ यह सुनकर राक्षस क्रोध से काँपने लगा तथा बोला “मैं तेरे शिव को जानता हूँ। वह मेरा कुछ नहीं कर सकता। तू शिव के रूप को छोड़ कर मेरी पूजा कर, अन्यथा तुझे बड़ा दण्ड दूँगा।” यह सुनकर कामरूपेश्वर ने कहा “मै शिवजी की पूजा को नहीं छोड़ सकता। मेरे स्वामी सर्वोच्च हैं। वे मेरा त्याग कदापि नहीं करेंगे।“” राजा के इस वचन को सुनते ही राक्षस उसपर अपनी पैनी तलवार से प्रहार करने चला। परन्तु उसकी तलवार पार्थिवलिंग तक पहुँची भी न थी, कि उस पार्थिव लिंग से साक्षात् स्वयं शिवजी प्रकट हो गये और उन्होंने अपने को भीमेश्वर नाम से घोषित करते हूये उस राक्षस से भक्त रक्षा के अपने प्रण को कहते हुए अपना पिनाक उठा उसकी तलवार के दो टुकड़े कर दिये। तदुपरांत शिवजी के गणों तथा राक्षसों के बीच भयंकर युद्ध आरम्भ हो गया जिससे पृथ्वी, पर्वतों सहित सातों समुद्र विचलित हो गये। महेश्वर के क्रोधानल से जले राक्षसों के शरीर की जली भस्म सम्पूर्ण वन में व्याप्त हो गयी, जिससे अनेक औषधियाँ और मानव रूप उत्पन्न हो गये, जिसके लेप से भूत-प्रेत और पिशाच आदि दूर भाग जाते हैं। पश्चात् वहाँ उपस्थित देवताओं और मुनियों ने शिवजी से वहाँ निवास करने की प्रार्थना की और वे लोक-कल्याण की दृष्टि से वहाँ भीमशंकर ज्योतिर्लिंग के नाम से उपस्थित हो गये।
ऐसी मान्यता है कि जो भक्त इनका दर्शन एवं पूजन करता है, उसकी सभी आपत्तियों का निवारण हो जाता है।
प्रतिदिन दर्शन-पूजन के लिए यह मंदिर दिन भर खुला रहता है। यहाँ लिंग भू-तल में स्थापित है अतः लिंग का दर्शन ऊपर से ही किया जा सकता है।
भीमाशंकर महादेव काशी विश्वनाथ गेट नं0-2 (सरस्वती फाटक) में स्थित है।