वाराणसी में स्थित नागेश्वर ज्योतिर्लिंग गुजरात के द्वारका में ईशान कोण से 12-13 मील दूर स्थित नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की प्रतिकृति है। काशी खण्ड के अनुसार नागेश्वर ज्योतिर्लिंग वाराणसी के मैदागिन क्षेत्र में मृत्युंजय महादेव मंदिर परिसर में स्थित है।
शिव महापुराण में नागेश्वर ज्योतिर्लिंग के प्राकट्य एवं महात्म्य के संबंध में यह कथा वर्णित है कि पूर्वकाल में दारूका नामक एक राक्षसी थी, जो माता पार्वती के वरदान के कारण अहंमन्यता से परिपूर्ण रहती थी। उसके पति का नाम दारूक था। एक बार दारूक अनेक राक्षसों के साथ सज्जनों को कष्ट देता हुआ लोक-यज्ञों को विध्वंश करते हुये धर्म का सर्वथा नाश करने लगा। भयभीत होकर लोग वहाँ महर्षि और्व की शरण में गये। महर्षि और्व आश्वासन देते हुए बोले-“आप लोग दु:खी न हो। दुराचारी राक्षस स्वयं ही मरेगा|” तत्पश्चात सुखदाता और्व मुनि ने राक्षसों को शाप दे दिया “”ये राक्षस यदि पृथ्वी पर प्राणियों की हिंसा या यज्ञों का विध्वंश करेंगे तो उसी समय अपने प्राणों से हाथ धो बैठेंगे।“ यह समाचार ज्ञात होते ही देवताओं ने दुराचारी राक्षसों पर आक्रमण कर दिया। राक्षसों में आतंक छा गया। तब उन्हें चिन्तित देख दारूका ने कहा- “मैं इस वन को जहाँ चाहूँ उठाकर ले जा सकती हूँ।“राक्षसों ने उससे अनुरोध किया कि जैसे भी संभव हो वह उनके प्राणों की रक्षा करें। तत्पश्चात दारुका उस वनस्थली को उठाकर राक्षसों सहित आकाश में उड़कर समुद्र के मध्य में जा बैठी। अब राक्षस रक्षित हो समुद्र के बीच में रहने लगे। वहाँ उन्हें जो भी ऋषि, देवता, मनुष्य आदि मिलते वह उन्हें पकड़ के ले जाते तथा अपने बन्दीगृह में बन्द कर देते तथा उन्हें कष्ट देते। उन बन्दियों में सुप्रिय नामक एक वैश्य शिव-भक्त था। वह कारागार में भी शिव पूजन में लीन रहता था तथा कारागार में उपस्थित अन्य मनुष्यों को शिव-मंत्र देकर उन्हें पार्थिव पूजन सिखाया करता था। परिणामतः कारागार में उपस्थित समस्त मनुष्य “नम: शिवाय” का जप करने लगे। प्रसन्न होकर वहाँ स्वयं भगवान शिव प्रकट हुए तथा उन्होनें सुप्रिय सहित समस्त शिवभक्तों की पूजा-विधि को ग्रहण कर लिया।
इस दौरान दारूक राक्षस के किसी सेवक ने सुप्रिय के समक्ष शिवजी के सुन्दर रूप को देख अपने स्वामी को दिव्य चरित्र की कारागार में उपस्थिति की सूचना दी। उसे सुन दारूक वहाँ पहुँचकर उस वैश्य से वह सब समाचार पूछने लगा जिसके उत्तर में सुप्रिय ने यह कहा कि उसे इस बारे में कोई ज्ञात नहीं है। यह सुनकर दारुक अति क्रोधित हो गया तथा उसने सुप्रिय को मारने के लिए राक्षसों को आज्ञा दी। आज्ञा प्राप्त करने के उपरांत राक्षस ज्यों ही सुप्रिय का वध करने, वैसे ही उसकी प्रार्थना को सुनकर शिवजी उस चार द्वार वाले भवन के एक विवर से शीघ्र ही आविर्भूत हो गये। प्रसन्न हो सदाशिव ने उस वैश्य को अपना पाशुपत नामक अस्त्र दिया और स्वयं असुरों का वध करने लगे क्षण भर में ही उन्होंने राक्षसों को उनके कुटुम्बियों सहित मार डाला। दारूक की पूरी सेना ध्वंस हो गयी।
यह देख अपने वंश की रक्षा के लिये दारुका नामक राक्षसी ने देवी पार्वती से प्रार्थना की। प्रसन्न हो देवी पार्वती ने शिवजी से कहा कि “इस युग के अन्त में तामसी सृष्टि उप्तन्न होगी। दारूका राक्षसी मेरी शक्ति है। वह राक्षसों में वरिष्ठ होकर राज्य करेगी।“ शिवजी ने कहा- “मैं भी अपने भक्तों की रक्षा के लिये इस वन में निवास करूँगा। सतयुग के प्रारम्भ में वीरसेन नामक एक प्रसिद्ध राजा होगा, जो मेरा दर्शन कर चक्रवर्ती सम्राट हो जायेगा।“
इस प्रकार शिव-पार्वती वहाँ स्थित हो गये और उनके ज्योतिर्लिंग स्वरूप का नागेश्वर नाम पड़ा और पार्वतीजी वहाँ नागेश्वरी नाम से विख्यात हुयी। सतयुग के प्रारम्भ में निषद देश में शिवजी की भक्ति करने वाला महासेन नाम के एक राजा को वीरसेन नामक पुत्र की प्राप्ति हुई और उस क्षत्रिय-कुलभूषण ने बारह वर्ष तक पार्थिव शिव की पूजा कर बड़ा कठिन तप किया और इतने दिनों में तब तक पार्वतीजी के दिये हुये वरदान के अनुसार उस वन के निवासी म्लेच्छ राक्षस भी सदाचारी हो गया।
ऐसी मान्यता है कि यह ज्योतिर्लिंग त्रैलोक्य की कामना को पूर्ण करने वाला है। अतःइसके दर्शन से मनुष्यों को पापों से मुक्ति मिलती है तथा समस्त मनोरथों की प्राप्ति होती है।
प्रायः दर्शन-पूजन के लिए यह मंदिर प्रातः 7:00 से 09:00 बजे तथा सायं 07:00 से 08:00 बजे तक खुलता है।
वाराणसी में नागेश्वर महादेव मंदिर महामृत्युंजय मन्दिर परिसर मे(वृद्ध काल के घेरे में) स्थित है। मंदिर यात्रा/ दर्शन हेतु स्थानीय परिवहन उपलब्ध हैं।